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से 'न' आगम स्वाङ्ग बनता नहीं है अत एव 'न' आगम व्यवधानरूप होता ही है ।
यह न्याय और इसका पूर्ववर्ती न्याय 'आदेशादागमः ' ॥५०॥ जैनेन्द्र, शाकटायन, चान्द्र परम्परा में प्राप्त नहीं है तथा पाणिनीय परम्परा में सर्वत्र परत्व इत्यादि से व्यवस्था की गई होने से वहाँ भी इस न्याय का कोई प्रयोजन नहीं है ।
॥ ५२॥ परान्नित्यम् ॥
न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण )
पर कार्य से नित्यकार्य बलवान् है ।
'स्पर्द्ध' ७/४/११९ परिभाषा का अपवाद स्वरूप यह न्याय है । 'स्पर्द्ध' ७/४/११९ कहता है कि जहाँ एकसाथ दो भिन्न-भिन्न सूत्रों से होनेवाले दो भिन्न भिन्न कार्य प्राप्त हो तब उन्हीं दो सूत्रों में से जो सूत्र पर हो उसी सूत्र से होनेवाला कार्य बलवान् बनता है और प्रथम वही कार्य होता है ।
जबकि यह न्याय कहता है कि जब एकसाथ दो भिन्न-भिन्न सूत्रों से होनेवाले दो भिन्नभिन्न कार्यों की प्राप्ति हों तब यदि पूर्वसूत्र से होनेवाला कार्य नित्य हो तो वही नित्य कार्य पर सूत्र से होनेवाले कार्य का बाध करता है ।
उदा. 'युष्मान् अस्मान् वा आचक्षाणेन युष्या अस्या ।' यहाँ युष्मद् और अस्मद् से णिच् होगा तब 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' ७/४/४३ से 'अद्' का लोप होगा और क्विप् होते ही उसका लोप होगा । 'णेरनिटि' ४/३/८३ से णिच् का लोप होगा और टा प्रत्यय होने पर 'युष्म् + आ' और 'अस्म् + आ' होगा । तब 'त्वमौ प्रत्ययोत्तरपदे चैकस्मिन् २/१/११ से 'त्व और 'म' आदेश होने की प्राप्ति है तथा 'टायोसि य:' २/१/७ से 'म्' का 'य' होने की प्राप्ति है । इन दोनों कार्यों में 'त्व' और 'म' आदेश पर हैं जबकि यत्वविधि पूर्व होने पर भी नित्य है क्योंकि प्रथम त्व-म आदेश करेंगे तो भी 'टायोसि य: ' २/१/७ से 'त्व' और 'म' के 'अ' का 'य्' आदेश होगा । अतः इन प्रयोगों में ‘युष्म्' और 'अस्म्' के 'म्' का, 'युष्म्-अस्म्' का 'त्व - म' आदेश करने से पूर्व 'टाङ्योसि य:' २/१/७ से य हो जायेगा ।
इस न्याय का ज्ञापन इस प्रकार होता है । 'मा भवानटन्तं प्रयुक्त इति मा भवानटिटद्' इत्यादि प्रयोग में नित्य ऐसे धातु के द्वित्व का बाध करके अनित्य ऐसी ह्रस्वविधि 'उपान्त्यस्यासमानलोपिशास्वृदितो डे' ४ / २ / ३५ से प्रथम होगी उसका ज्ञापन करने के लिए 'ओण्' धातु को 'ऋदित्' किया है ।
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यदि द्वित्व नित्य होने से 'स्वरादेर्द्वितीय: ' ४ / १/४ से द्वितीय अंश का द्वित्व होनेवाला ही होता तो, 'ओ' उपान्त्य नहीं होने से ह्रस्व होने की प्राप्ति ही नहीं है तो हूस्वविधि की निवृत्ति के लिए 'ओ' धातु को ऋदित् करने की क्या आवश्यकता ? अर्थात् कोई आवश्यकता नहीं है तथापि ऋदित किया है, उससे ज्ञापन होता है कि पर कार्य से नित्य कार्य बलवान् होने से ह्रस्वविधि से पूर्व ही द्वित्वविधि हो जायेगी, किन्तु यहाँ ह्रस्वविधि अनित्य होने पर भी प्रथम होती है, उसका ज्ञापन
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