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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) कारण से ही ।
'आदेशादागमः' ॥५०॥ और 'आगमात्सर्वादेशः' ॥५१॥ दोनों न्याय स्वतंत्र हैं । वे अन्य किसी न्याय के कार्य में बिना कुछ विक्षेप किये अपना कार्य करते हैं । आदेश से आगम बलवान् होता है किन्तु जहाँ समग्र/संपूर्ण प्रकृति का आदेश करना हो वहाँ आगम से आदेश बलवान होता है।
'ऋ' धातु का णि पर में आने के बाद 'नामिनोऽकलिहले:' ४/३/५१ सूत्र से वृद्धि की प्राप्ति है और 'अति-री-ब्ली ही....पुः' ४/२/२१ से पु आगम होने की प्राप्ति है । यहाँ 'ऋ' एक ही स्वररूप धातु होने से संपूर्ण के स्थान पर वृद्धि रूप आदेश होनेवाला है। अतः 'आगमात्सर्वादेश:'से पु आगम का बाध हो सकता है। किन्तु यहाँ वृद्धि अन्त्यस्वर की करनी है और आद्यन्तवदेकस्मिन्' न्याय से वही ऋ को अन्त्य स्वर मानकर वृद्धिरूप आदेश होगा अतः वह संपूर्ण 'ऋ' स्वरूप प्रकृति के स्थान में हुआ नहीं माना जायेगा । अतः 'आगमात् सर्वादेशः' ॥५१॥ न्याय की यहाँ प्राप्ति ही नहीं है किन्तु पूर्व के न्याय 'आदेशादागमः ॥५०॥ से ऋ की वृद्धि होने के बजाय 'अति-री-व्नी ही.... पुः' ४/२/२१ से पु का आगम होगा बाद में 'पुस्पौ' ४/३/३ से गुण रूप आदेश होगा ।
कुछेक नवीन वैयाकरण के मत में पु आगम नित्य है किन्तु आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने पूर्न से चली आती प्रणालिकानुसार आगमशास्त्र को अनित्य मानकर पु आगम को भी अनित्य माना है, अत एव 'आदेशादागमः' ॥५०॥ न्याय उन्होंने रखा है । नवीन वैयाकरणों के मत में पु आगम नित्य होने से इस न्याय की कोई आवश्यकता नहीं है।
यह न्याय वाचनिक है, अत: इसका कोई ज्ञापक नहीं हो सकता है । अतः श्रीहेमहंसगणि ने ऐन वाचनिक न्यायों में ज्ञापक नहीं मिलने से इष्ट रूप की सिद्धि करने के लिए या अनिष्ट रूप न हो, उसके लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया ऐसा बताया है और उसे ही ज्ञापक के रूप में स्वीकार किया है !
__आदेशादागमः' ॥५०॥ न्याय का क्षेत्र मर्यादित है तथापि बह अनित्य है क्योंकि 'आगमात्सर्वादेश:' ॥५१॥ उसका अपवाद है तथा ( तदुपरांत) सर्वादेश न हो ऐसे स्थानों में भी यह न्याय अनित्य है । उदा. 'द्वयोः कुलयोः' ।
पाणिनीय व्याकरण में यह न्याय नहीं पाया जाता है क्योंकि वहाँ परत्व इत्यादि से व्यवस्था की गई है । यद्यपि आगमशास्त्र अनित्य है, ऐसा प्रत्येक परिभाषा-ग्रन्थ में स्वीकृत है तथापि पाणिनीय परंपरा में 'पुक्' आगम को नित्य माना है, अत: यह न्याय 'पु' आगम की दुर्बलता के लिए समर्थ नहीं है और इस न्याय का आश्रय नहीं करने से 'द्वयोः कुलयो:' की सिद्धि भी सरलता से हो सकेगी।
॥५१॥ आगमात्सर्वादेशः ।। आगग से सर्वादेश बलवान् है ।
'आदेशादागमः' ॥५०॥ न्याय का यह अपवाद है । आगम से भी संपूर्ण/पूरी प्रकृति का अशा बलवान् होता है । उदा. प्रियतिसृण: कुलात्; इस उदाहरण में प्रियतिसृ शब्द, कुल शब्द का
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