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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ४८) का त् नहीं होगा, तथा लुप्त सिच् का स्थानिवद्भाव करके स् का त् करना संभव शक्य नहीं है क्योंकि 'सस्तः सि' ४/३/९२ द्वारा इच्छित 'त' विधि का निमित्त सकारादिप्रत्यय है और वह सकार रूप वर्णाश्रित होने से वर्णविधि है तथा वर्णविधि में स्थानिवद्भाव नहीं होता है । इस प्रकार स्थानिवद्भाव की अप्राप्ति की आशंका से आचार्यश्रीहेमचंद्रसूरिजी ने यहाँ 'सि' में विययसप्तमी की व्याख्या की है। अतः वस् धातु से अद्यतनी का ताम् प्रत्यय आते ही 'सिच्' के विषय में प्रथम 'सन्त: सि' ४/३/९२ से स् का त् करने के बाद ही सिच् आयेगा और उसका तुरंत ही लुक् होगा। बाद में सिच् का स्थानिवद्भाव करके 'व्यञ्जनानामनिटि' ४/३/४५ से वृद्धि होकर अवात्ताम्' रूप सिद्ध होगा । यहाँ ऐसा न कहना कि पूर्व की तरह यहाँ सिच् का स्थानिवद्भाव नहीं होगा, क्योंकि यहाँ 'सिच्' विशिष्ट वर्ण समुदायस्वरूप होने से उसमें वर्णरूपत्व का अभाव है, अतः तदाश्रित विधि भी वर्णविधि नहीं कही जा सकेगी । अतः सिच् का स्थानिवद्भाव नि:संकोच हो सकेगा । यदि इस न्याय में लोप शब्द से लुप् का भी ग्रहण किया जाय तो पूर्व के न्याय की कोई आवश्यकता नहीं रहती है । किन्तु, पूर्वाचार्यों ने इस न्याय को भिन्न बताया है, अतः हमने भी यहाँ ऐसा किया है।
यह न्याय अनित्य/निर्बल है क्योंकि अगला न्याय उसको बाधित करता है।
पूर्व न्याय में लुप् को अन्तरङ्ग कार्य से बलवान् बताया है। जबकि यहाँ लोप को सर्व कार्य से बलवान् बताया है और ऊपर बताया उसी प्रकार लोप शब्द से लुक और लुप् दोनों का ग्रहण होता है, अत: उपर्युक्त न्याय का इस न्याय में समावेश हो सकता है. तथापि आचार्यश्री ने इसे पृथक बतावा है, इसका क्या कारण ?
'न्यायसंग्रह' के कर्ता श्रीहेमहंसगणि ने एक समाधान यह दिया है कि यहाँ लोप शब्द लुक और लुप् दोनों का वाचक होने पर भी लुक् स्वरूप लोप का ग्रहण करना क्योंकि लुप् पूर्व में उक्त है। इसके बारे में वे लिखते हैं कि 'इह च न्याये लोप शब्देन यदि लुवपि व्याख्यायते तदा पूर्व न्यायं विनापि सरति परं पूर्वाचार्येरसौ पृथगुक्त इत्यतोऽत्रापि तथैवोचे ।' किन्तु यह समाधान अपूर्ण लगता है क्योंकि कलिकालसर्वज्ञ जैसे महामेधावी पुरुष इस प्रकार एक भी न्याय अधिक दें ऐसा नहीं हो सकता है । अधिक सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर लगता है कि 'लुबन्तरङ्लेभ्यः' ॥४७॥ न्याय पृथक कहा वह उचित ही है क्योंकि 'लुबन्तरङ्गेभ्यः' ॥४७।। न्याय में स्पष्टता की गई है, उसी प्रकार उस परिभाषा में बहिरङ्ग ऐसा लुप् लेना चाहिए और वह अन्तरङ्ग कार्य से हमेशां बलवान् रहता है क्योंकि यह न्याय नित्य है ऐसा 'न्यायसंग्रह' के कर्ता श्रीहेमहंसगणि के वचन 'अस्थामता त्वस्य नावलोक्यते' से लगता है । इस न्याय को 'सर्वेभ्यो लोप:' ॥४८॥ में समाविष्ट करने पर 'सर्वेभ्यो लोपः' ॥४८॥ के साथ साथ वह भी अनित्य बन जायेगा, क्योंकि अगला न्याय 'लोपात् स्वरादेशः' ॥४९॥ न्याय, इस न्याय को अनित्य बनाता है।
दूसरा यहाँ दोनों न्याय में लोप शब्द से लुक् ही ग्रहण करना चाहिए, यह भी उचित नहीं है क्योंकि आचार्यश्री को यदि लुक् ही लेना होता तो 'सर्वेभ्यो लुक्' । और 'लुकः स्वरादेशः ।।' के स्वरूप में न्याय रचना की गई होती तो चल सकता था किन्तु वैसा न करके लोप शब्द रखा
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