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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ४०)
११५ तु स्वरे' .....४/१/१ सूत्र से ही होता है, अतः यहाँ 'आटतुः' में 'आद्योंऽश एकस्वरः' ४/१/२ या 'स्वरादेर्द्वितीयः' ४/१/४ द्वारा अट् का द्वित्व नहीं होता है।
___ 'आद्योंऽश एकस्वरः' ४/१/२ का अर्थ इस प्रकार है । 'स्वरादि से भिन्न अनेक स्वरयुक्त धातु के एक स्वरयुक्त आदि-अंश का द्वित्व होता है। और यहाँ अट् स्वरादि है किन्तु अनेक स्वरयुक्त नहीं है, अतः यहाँ उसका द्वित्व नहीं होगा ।
श्रीलावण्यसूरिजी ने 'आद्योऽश एकस्वरः' ४/१/२ और 'स्वरादेर्द्वितीयः' ४/१/४ के बीच परस्पर बाध्यबाधकभाव बताया है, वह सही है किन्तु 'आटतुः' सिद्ध करने में 'आद्योऽश एकस्वरः'४/१/२ से द्वित्व करने का प्रयत्न किया है और उसके द्वारा बताया है कि 'स्वरादेर्द्वितीयः' ४/१/ ४ सूत्र के क्षेत्र से भिन्न क्षेत्र में 'आद्योऽश एकस्वरः' ४/१/२ की प्रवृत्ति होनी चाहिए । यहाँ 'अट्' धातु 'स्वरादेर्द्वितीयः' ४/१/४ के क्षेत्र से भिन्न क्षेत्र में आता है किन्तु तथापि यहाँ 'आद्योंऽश एक स्वर: '४/१/२ की प्रवृत्ति नहीं होती है।
पाणिनीय परंपरा के अनुसार 'आद्योंऽश एकस्वरः' ४/१/२ को उन्होंने सर्वसामान्य मानकर, उसकी यहाँ प्रवृत्ति की है, किन्तु ऊपर बताया उसी प्रकार सर्वसामान्य धातु का द्वित्व, द्विर्धातुः परोक्षा डे प्राक् तु स्वरे स्वरविधेः' ४/१/१ से ही होता है । यहाँ 'आटतुः' प्रयोग उसी सूत्र से ही सिद्ध होता है किन्तु 'आद्योंऽश एकस्वरः' ४/१/२ से नहीं ।
'आद्योंऽश एकस्वरः' ४/१/२ सूत्र अनेक स्वरयुक्त धातुओं के लिए ही है ऐसी कोई स्पष्टता सूत्र में नहीं की गई है तथापि उसी सूत्र की वृत्तिमें 'अनेकस्वरस्य' विशेषण रखा है वह किस आधार पर ? उसकी चर्चा इस प्रकार हो सकती है । सामान्य रूप से पूर्वसूत्र में प्रयुक्त शब्द या पद की उपस्थति उसके बाद आनेवाले सूत्र में हो सकती है । यहाँ 'आद्योंऽश एकस्वरः' ४/१/२ से पूर्व स्थित 'द्विर्धातुः परोक्षा डे' .... ४/१/१ सूत्र में केवल सामान्य रूप से धातु के द्वित्व का विधान किया गया है, अतः वहाँ अनेकस्वरस्य विशेषण रखा गया नहीं है, कि जिस के आधार पर 'यहाँ अनेक स्वरस्य' पद की अनुवृत्ति हो सके । तथापि वृत्ति में अनेकस्वरस्य' क्यों रखा गया है ? उसकी स्पष्टता करते हुए 'सिद्धहेमबृहद्वृत्ति' में बताया है कि एकस्वरस्य पूर्वेणैव सिद्धेऽत्र तस्य द्वित्वं अनेन कृते फलाभावः इत्यतः ‘अनेकस्वरस्य' ग्रहणम् । इस प्रकार आद्योऽश एकस्वरः' ४/१/२ में अनेक स्वरस्य' 'धातोः' का विशेषण होता है।
संक्षेप में; 'व्याख्यातो विशेषार्थप्रतिपत्तिः' ॥६४॥ न्याय से यहाँ वृत्ति में अनेकस्वरस्य' का ग्रहण किया है ऐसा समझना उचित है।
इस प्रकार 'आटतुः' में 'अट्' के द्वित्व के लिए 'आद्योंऽश एकस्वरः' ४/१/२ के स्थान पर 'द्विर्धातुः परोक्षा डे ...४/१/१ सूत्र की प्रवृत्ति करनी चाहिए ।
श्रीलावण्यसूरिजी ने चार प्रकार के बाधबीज बताये हैं । (१) तदप्राप्तियोग्येऽचारितार्थ्यम् ( २ ) तदप्राप्तियोग्येऽचारितार्थ्ये सति कृते चारितार्थ्यम् (३)
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