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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ४६)
१२५ करण, सम्प्रदान, अपादान या अधिकरण होने पर उसी कारक से होनेवाली विभक्ति के प्रत्यय रखना वही कारकविभक्ति कहलाती है।
श्रीहेमहंसगणि इस न्याय के न्यास में कहते हैं कि 'नमस्यति' में 'नमः करोति' अर्थ में 'नमस्' अव्यय से क्यन् प्रत्यय होकर नमस्य' धातु बनता है, तो यहाँ ऐसी शंका उपस्थित होती है कि 'नमस्यति' के योग में चतुर्थी की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है ? क्योंकि 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' न्यायानुसार केवल नमः शब्द ही अर्थवान् माना जा सकता है जबकि यहाँ 'नमस्य' धातु अर्थवान् है किन्तु उसका एकदेश स्वरूप 'नमः' शब्द अर्थवान् नहीं है उसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि, आपकी बात सही है किन्तु 'अर्थवद्ग्रहणे-' न्याय की यहाँ प्रवृत्ति नहीं होती है क्यो कि 'न्यायाः स्थविरयष्टिप्रायाः' (न्याय स्थविरयष्टि जैसे हैं,) अर्थात् आवश्यकता होने पर ही न्याय की प्रवृत्ति करनी चाहिए । यहाँ यह 'अर्थवद्ग्रहणे-' न्याय की कोई आवश्यकता नहीं है।
इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक श्रीलावण्यसूरिजी की दृष्टि से उचित मालूम नहीं देता है। इस न्याय की अनित्यता के ज्ञापक के स्वरूप में- 'क्रुद्रुहेासूयार्थे यं प्रति कोपः' २/२/२७ को बताया है। उसमें यद् से प्रति के योग में होनेवाली द्वितीया विभक्ति (उपपदविभक्ति) की है किन्तु कुप् धातु के योग में सम्प्रदान संज्ञा होकर चतुर्थी कारकविभक्ति नहीं की गई है। यह बात सही नहीं है। प्रथम बात यह है कि यहाँ कोपः' शब्द कुप्यति धातु से बना हुआ है, तथापि वह साक्षात् कुप धातु नहीं है किन्तु शब्द है, तथा शब्द का कर्म या सम्प्रदान हो सकता नहीं है । दूसरी बात यह है सूत्र में प्रयुक्त यद् शब्द का अर्थ/विषय प्रति वास्तविक कोप का अभाव होने से सम्प्रदान संज्ञा हो सकती नहीं है, अन्यथा 'मनसा क्रुध्यति, शिष्यस्य क्रुध्यति विनयार्थम्, भार्यामिर्ण्यति, मैनामन्योऽद्राक्षीत्' इत्यादि में सम्प्रदान संज्ञा होकर चतुर्थी होने की आपत्ति आयेगी, अतः यहाँ चतुर्थी की प्राप्ति नहीं थी। अत एव 'प्रति' शब्द के योग में द्वितीया विभक्ति हुई होने से यहाँ इस न्याय की कोई आवश्यकता/जरूरत ही नहीं है, अतः इसी सूत्र के निर्देश से इस न्याय का दुर्बलत्व बताया नहीं जा सकता है।
तदुपरांत यह न्याय वाचनिकी परिभाषा के स्वरूप मे होने से वह अनित्य नहीं हो सकता है। जो न्याय ज्ञापकसिद्ध होता है उसकी ही अनित्यता बतायी जा सकती है और जहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है वहाँ अन्य कोई समाधान खोजना चाहिए।
इस परिभाषा को नागेश ने परिभाषेन्दुशेखर में (परि. ९४) वाचनिकी बताई है और यह बात (पा.सू.) 'तत्र च दीयते' सूत्र के भाष्य से ध्वनित मानी है।
इस न्याय की अनित्यता दूसरी तरह से भी बतायी जा सकती है। वह इस प्रकार - : 'विवक्षातः कारकाणि' न्याय, इस न्याय का बाधक हो सकता है क्योंकि उपपदविभक्ति और कारकविभक्ति दोनों प्राप्त हों ऐसे दृष्टान्त में कारक की कारक के स्वरूप में विवक्षा न करने पर, उपपद में आये हुए शब्द के योग में होनेवाली उपपदविभक्ति निःसंकोच हो सकती है।
यह न्याय व्याडि के परिभाषासूचन, शाकटायन व कातन्त्र की दुर्गसिंहकृतवृत्ति को छोड़कर सभी परिभाषासंग्रह में है।
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