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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) जबकि 'द्वितीयाकृत्य क्षेत्रं गतः ' में द्वितीय शब्द 'डाच्' प्रत्ययान्त होने से गति संज्ञा होकर समास होगा, बाद में 'अनञः क्त्वो... ' ३/२/१५४ से 'क्त्वा' का 'यप्' आदेश होगा ।
यदि यह न्याय नित्य होता तो 'डा' और 'डाच्' - दोनों प्रत्यय समान ही माने जाते, तो 'पिता कृत्वा गतः ' में 'पिता' को 'गति' संज्ञा होकर समास होता और 'क्त्वा' का 'यप' आदेश होकर 'पिता कृत्वा' के स्थान पर 'पिताकृत्य गतः ' स्वरूप अनिष्ट प्रयोग होता ।
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श्रीमहंसगणि ने इस न्याय के प्रथमांश 'नानुबन्धकृतमसारूप्यम्' में जिस प्रकार से अनित्यता बतायी है उसी प्रकार से अनित्यता बताना आवश्यक नहीं है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी मानते हैं ।
श्रीमहंसगणि द्वारा बताये गये उदाहरण में 'पिता कृत्वा गतः ' में 'ऊर्याद्यनुकरणच्विडाचश्च गति:' ३/१/२ सूत्र द्वारा होनेवाली 'गति' संज्ञा, 'ऋदुशनस्पुरुदंशोऽनेहसश्च सेर्डा:' १/४/८४ से होनेवाला 'सि' प्रत्यय का 'डा' आदेश जिस के अन्त में है ऐसे 'पिता' शब्द को नहीं होगी । अतः यहाँ अनुबन्धकृत असारूप्य का स्वीकार किया है, ऐसा वे कहते हैं किन्तु यहाँ एक बात खास तौर पर ध्यान में रखने योग्य है कि 'डा' और 'डाच्', दोनों में 'डात्व' समान होने पर भी 'गति' संज्ञाविधायक सूत्र 'ऊर्याद्यनुकरण'... ३/१/२ में डाच् (डाजन्त) का ही ग्रहण है अतः 'डा' अन्तवाले शब्द को 'गति' संज्ञा होने की कोई संभावना ही पैदा नहीं होती है क्योंकि एक सिद्धान्त ऐसा है कि सूत्र में सामान्य का ग्रहण किया हो तो, उससे सामान्य और विशेष दोनों का ग्रहण होता है किन्तु यदि सूत्र में विशेष का ग्रहण किया हो तो, उससे सामान्य का ग्रहण कदापि नहीं होता है, और ऐसा करना ही उचित है । अतः 'पिता' शब्द को 'गति' संज्ञा नहीं होगी किन्तु 'तीय- शम्ब - बीजात् कृगा कृषौ डाच्' ७/२/१३५ से होनेवाले 'डाच्' प्रत्ययान्त को ही गति संज्ञा होगी ।
श्रीलावण्यसूरिजी इस न्याय की चर्चा करते हुए 'अत्रेदं विचार्यते' कहकर बताते हैं कि 'नानुबन्धकृतमनेकवर्णत्वम्' अंश में 'ष्या पुत्रपत्योः केवलयोरीच् तत्पुरुषे' २/४/८३ सूत्र में जो अभेद निर्देश किया है, वह संपूर्ण 'घ्या' के स्थान पर 'ईच्' आदेश करने के लिए है, उसे इस न्याय के ज्ञापक के रूप में मानना उचित नहीं है। यह बात उन्होंने किसके मतानुसार कही है वह स्पष्ट नहीं है। शुरू की इस बात को, उनका अपना मन्तव्य समझना, उचित नहीं है क्योंकि 'न्यायार्थसिन्धु' के अन्त में उन्होंने स्वयं, इस बात को इस न्याय के ज्ञापक के रूप में मानी है और 'तरङ्ग' में भी इसका ही समर्थन किया है। अतः यह बात अन्य किसी की मान्यता होनी चाहिए या तो पूर्वपक्ष स्थापन करने के लिए ऐसा बताया हो, ऐसा दिखायी देता है ।
श्रीमहंसगणि द्वारा स्वरचित न्यास में ये सब बातें बताई हैं ।
'अभेदनिर्देश' व्यर्थ बनने पर ही इस न्यायांश का ज्ञापक बन सकता है, किन्तु यहाँ अन्य किसी के मतानुसार अभेदनिर्देश सार्थक है ऐसा बताते हैं। यहाँ 'घ्याया ईच्' इस प्रकार भेदनिर्देश किया होता तो 'घ्या' के अन्त्य 'आ' (आप्) का ही ' षष्ठ्यान्त्यस्य' ७/४/१०६ परिभाषा से 'ईच्' आदेश होता, ऐसा जो बताया वह ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ 'ष्य', 'अण्' या 'इञ्' प्रत्यय स्थान
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