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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'अङ्' के बीच व्याप्य-व्यापकभाव सम्बन्ध नहीं है ।) अर्थात् ‘सक्' का विषय केवल ‘श्लिष्' धातु ही है, जबकि 'अङ्' का विषय 'लदित्, द्युतादि' और 'पुष्यादि' धातु है, जिसमें 'श्लिष्' का समावेश हो जाता है । अतः 'सक्', 'अङ्' का अपवाद हो सकता है किन्तु 'जिच्' का अपवाद नहीं हो सकता है क्योंकि 'जिच्', 'भाव' और 'कर्म' में ही होता है। अतः भावे प्रयोग और कर्मणि प्रयोग से भिन्न कर्तरि प्रयोग में 'सक्' प्रत्यय के चारितार्थ का संभव है। संक्षेप में 'जिच्' का और 'अङ्-सक्' का कार्यक्षेत्र भिन्न भिन्न होने से 'सक्' 'जिच्' का अपवाद नहीं हो सकता है । 'जिच्' के स्थान में 'सक्' या 'सक्' के स्थान में 'जिच्' होने की संभावना होने पर ही, उन दोनों के बीच बाध्य-बाधकभाव सम्बन्ध स्थापित हो सकता है । अब 'भाष्योक्त' इस सिद्धान्त को मान लें, और 'जिच्' का अपवाद 'सक्' है ऐसा मान लेने पर भी इस उपन्यासक्रम, इस न्याय का ज्ञापन करने
को शक्तिमान् नहीं है, क्योंकि कर्तरि-अद्यतनी के प्रत्यय पर में आने पर होनेवाले सब प्रत्ययों का विधान करने के बाद, उपर्युक्त सब प्रत्ययों का बाध करने के लिए अन्त में भाव-कर्म में 'जिच्' का विधान किया गया है।
अद्यतनी में होनेवाले प्रत्ययों का उपन्यास क्रम इस प्रकार है। प्रकरण के आदि में ही, उत्सर्ग और व्यापक स्वरूप 'सिच्' का विधान किया, बाद में 'सक्' का इसके बाद आत्मनेपद और परस्मैपद दोनों में होनेवाले 'टु' का, उसके बाद केवल परस्मैपद में होनेवाले 'अङ्' विधान और अन्त में उपर्युक्त सब प्रत्ययों का बाधक/अपवाद स्वरूप केवल 'भाव-कर्म' में होनेवाले 'जिच्' का विधान किया है । इस प्रकार इसी क्रम की अन्यथा उपपत्ति का संभव न होने से वह इस न्याय का ज्ञापक नहीं बनेगा।
अपवादशास्त्र को अपने चारितार्थ्य के लिए परशास्त्र का अवश्य बाध करना होता है। यहाँ यदि अव्यवहित पर का बाध संभवित हो तो व्यवहित पर का बाध मानने में कोई प्रमाण नहीं है। यह सिद्धान्त प्रस्तुत न्याय के मूल में है।
सामान्यतया उत्सर्गशास्त्र के बाद ही अपवादशास्त्र कहना उचित और न्याय्य है क्योंकि अपवाद के ज्ञान के लिए उत्सर्ग का ज्ञान होना जरूरी है, यह एक पक्ष है । दूसरा पक्ष कहता है कि प्रथम अपवादशास्त्र का विधान कर के. बाद में उतने अंश को छोडकर उत्सर्गशास्त्र की प्रवत्ति होती है, अतः उत्सर्गशास्त्र का विधान बाद में करना चाहिए । प्रथम पक्ष लक्षणैकचक्षुष्क' का विषय है। जबकि द्वितीय पक्ष 'लक्ष्यैकचक्षुष्क' का विषय है । तथा प्रथम पक्ष ही शिष्य के लिए अनुकूल है, अत: उसका ही आदर करना चाहिए, तथापि यदि द्वितीय पक्ष का आश्रय किया गया हो तो, उसका कोई भी प्रयोजन होना ही चाहिए । वही प्रयोजन सूचक ही यह न्याय है । प्रयोजन यही है कि जब प्रथम अपवादशास्त्र का विधान किया गया हो तो, वह अनन्तरोक्त उत्सर्गसूत्र का ही बाध करता है किन्तु व्यवहित सहित संपूर्ण उत्सर्गशास्त्र का बाध नहीं करता है।
'कातन्त्र' और 'कालाप' के सिवा अन्यत्र/सर्वत्र यह न्याय उपलब्ध है।
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