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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ३६)
१०७ ॥३६॥ पूर्वेऽपवादा अनन्तरान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान् ॥
पूर्वोक्त अपवाद अनन्तर विधि-सूत्रों का बाध करतें हैं किन्तु उसके बाद के परम्परित विधि-सूत्रों का बाध नहीं करते हैं।
पूर्वोक्त बाधक/अपवाद-सूत्र, बाद में कहे जानेवाले बाध्य विधि-सूत्रों में से अनन्तर विधिसूत्रों का ही बाध करते हैं किन्तु व्यवहित/परंपरित विधि-सूत्र का बाध नहीं करते हैं । व्यवहित विधिसूत्र के निषेध को यह न्याय रोकता है।
उदा. 'श्लिषः' ३/४/५६ सूत्र से होनेवाला 'सक्' अनन्तर विधि स्वरूप 'लुदित्-धुतादिपुष्यादेः - ' ३/४/६४ से होनेवाले 'अङ्' का ही बाध करेगा, किन्तु व्यवहित विधिस्वरूप 'भावकर्मणोः' ३/४/६८ से होनेवाले 'जिच्' का बाध नहीं करता है । अतः 'आश्लिक्षत् कन्यां चैत्रः' में 'सक्' से 'अङ्' का बाध होने पर 'अङ्' नही होगा । किन्तु 'आश्लेषि कन्या चैत्रेण' में 'सक्' से 'जिच्' का बाध नहीं होने से, नि:संकोच 'जिच्' होगा किन्तु 'सक्' नहीं होगा।
सक्, अङ्' और 'जिच्' सम्बन्धित सूत्रों का उपन्यास-क्रम ही इस न्याय का ज्ञापक है। 'सक्' प्रत्यय, 'अङ्' और 'जिच्' दोनों का अपवाद होता है तथापि 'अङ्' का बाध करना इष्ट है, किन्तु 'जिच्' का बाध इष्ट नहीं है, अतः यदि 'अङ्' प्रत्यय सम्बन्धित सूत्ररचना के बाद 'सक्' सम्बन्धित सूत्र का उपन्यास किया होता तो बाध्य की उक्ति के बाद बाधक की उक्ति होती और वही समर्थ/योग्य पक्ष होने से इस प्रकार का आदर करना न्याय्य है । और अनिष्ट 'जिच्' का बाध भी, इस न्याय के बाद आनेवाले/अगले न्याय 'मध्येऽपवादा: पूर्वान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान्' से दूर हो जाता था तथापि प्रथम बाधक की उक्ति, बाद में बाध्य की उक्ति-स्वरूप असमर्थ पक्ष का आश्रय किया वह इस न्याय से इष्ट सिद्धि हो ही जाएगी, ऐसे आशय से किया है।
यह न्याय अनित्य है क्योंकि 'शिश्रियुः' इत्यादि प्रयोग में 'संयोगात्' २/१/५२ सूत्र से किया गया 'इय्' आदेश/अनन्तर सूत्र से विहित 'यत्व' का जैसे बाध करता है वैसे 'यवक्रियौ' इत्यादि प्रयोग में भी 'क्विब्वृत्तेरसुधियस्तौ' २/१/५८ से होनेवाले 'यत्व' का भी बाध करता है। यदि यह न्याय नित्य होता तो व्यवहित सूत्र से होनेवाला 'यत्व' का बाध कदापि नहीं हो सकता है।
प्रथम 'सक्' सम्बन्धित सूत्र, बाद में 'अङ्' सम्बन्धित सूत्र और अन्त में 'त्रिच्' सम्बन्धित सूत्र का उपन्यास-क्रम ही इस न्याय का ज्ञापक है, ऐसा श्रीहेमहंसगणि का विधान उपयुक्त नहीं है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं । इसका कारण बताते हुए वे उपन्यास क्रम को सार्थक बता रहे हैं । वह इस प्रकार : 'अङ्' का अपवाद 'सक्' हो सकता है क्योंकि 'सक्' का विषय व्याप्य है और 'अङ्' का विषय व्यापक है। (यहाँ एक बात खास तौर से ध्यान में रखना कि 'श्लिषः' ३/४/ ५६ से होनेवाले 'सक्' और 'लदिद् द्युतादि...' ३/४/६४ से होनेवाले 'अङ्' के बीच ही व्याप्य/ व्यापकभाव सम्बन्ध है, किन्तु 'हशिटो नाम्युपान्त्याद्...' ३/४/५५ से होनेवाले 'सक्' और 'शास्त्यसूवक्ति....' ३/४/६० से लेकर ऋदिच्छ्वि -स्तम्भू...ज्रोवा' ३/४/६५ तक के सूत्र से होनेवाले
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