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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) निबर्लता का जो आश्रय किया है वह उचित नहीं है । अनित्यत्व को बतानेवाले इस न्याय के अनित्यत्व से ये सब विधियाँ नित्य हो जाती हैं और यही नित्यत्व स्वतः सिद्ध ही है । अतः इसके लिए इस न्याय की अनित्यता का आश्रय करने से गौरव होगा । इस न्याय द्वारा इन सब विधियों का अनित्यत्व बताने से ही 'क्वाचित्कत्व' और 'कादाचित्कत्व' स्पष्ट हो जाता है और वह अनित्यत्व केवल 'इष्ट प्रयोग' की सिद्धि करने के लिए ही है । अतः इष्ट प्रयोग की सिद्धि के लिए पुन: इस न्याय के अनित्यत्व का आश्रय करना व्यर्थ ही है । 'समासान्त' इत्यादि का 'नित्यत्व स्वतः सिद्ध ही है, अत: लक्ष्यानुसार, उसकी 'स्याद्वाद' के आश्रय द्वारा क्वचित् प्रवृति नहीं होती है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए।
इस न्याय के बारे में श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि इस न्याय के समासान्त विधि की अनित्यता के बहुत से उदाहरण देखने को मिलते हैं किन्तु 'आगम' तथा 'संज्ञा, ज्ञापक, गण और नन्' निर्दिष्ट कार्य की अनित्यता के विशेष उदाहरण नहीं मिलते हैं । अतः इसके अनित्यत्व के ज्ञापन का कोई फल नहीं है इसलिए इस न्याय का स्वीकार नहीं करना चाहिए।
पाणिनीय परम्परा में श्रीनागेशभट्ट ने 'परिभाषेन्दुशेखर' में 'संज्ञापूर्वकमनित्यम्, आगमशास्त्रमनित्यम्, गणकार्यमनित्यम्, अनुदात्तेत्वलक्षणमात्मनेपदमनित्यम्, नघटितमनित्यम्' इत्यादि न्यायों का उल्लेख करके उनके ज्ञापक इत्यादि के फल बताकर ये सब न्याय महाभाष्य में पठित नहीं हैं कहकर, इनका विविध प्रकार से खंडन किया है । उसी प्रकार श्रीलावण्यसूरिजी ने पाणिनीय परम्परानुसार इन न्यायों का खंडन करके कहा है कि यहाँ दूसरी व्यवस्था करनी चाहिए या पाणिनीय परम्परानुसार व्यवस्था की गई होती तो, इन सब न्यायों की कोई आवश्यकता नहीं रहती ।
यहाँ श्रीहेमहंसगणि ने "णत्वनिषेधश्च शिक्षादेश्चाण' ६/३/१४० इति सूत्रोक्ते शिक्षादिगणे ऋगयनम् इति नान्त पाठरूपाज्ज्ञापकादपि सिद्धयति ।" वाक्य में 'ऋगयन' शब्द को 'नत्व युक्त' या 'नत्वविशिष्ट' कहने की जगह 'नान्तपाठरूप' कहा, यह उचित नहीं है क्योंकि 'ऋगयन' शब्द अकारान्त है । यदि यह नकारान्त ही होता तो किसी भी सूत्र से ‘णत्व' होने की प्राप्ति ही नहीं होती। अतः ‘णत्व' के निषेध के लिए, 'अगः' शब्द के उदाहरण स्वरूप में अर्थात् 'पूर्वपदस्थानाम्न्यगः' २/३/६४ के प्रत्युदाहरण स्वरूप 'ऋगयनम्' प्रयोग उचित नहीं लगता, तथापि 'पूर्वपदस्था....'२/ ३/६४ सूत्र के प्रत्युदाहरण में 'ऋगयनम्' प्रयोग रखा वह इसके 'अदन्तत्व' की सिद्धि करता है। अत: 'न्यायसंग्रह' में श्रीहेमहंसगणि ने जो 'नान्तपाठरूपाद्' कहा, वह अनुचित है और इसके स्थान पर 'नत्वविशिष्ट पाठरूपाद्' कहना चाहिए ।
सभी परिभाषासंग्रहों में ये छः कार्य भिन्न-भिन्न न्यायों के रूप में अनित्य बताये हैं । उन सभी को यहाँ एक ही न्याय में सम्मिलित किये गये हैं।
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