________________
न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण )
लोप होगा' और 'वसू' शब्द बनेगा । उसका प्रथमा विभक्ति द्विवचन में 'वस्वौ' रूप होगा ।
यही 'वस्वौ' रूप सिद्ध करने के लिए 'स्यादौ वः' २/१/५७ सूत्र की रचना की है और 'वसू' के 'ऊ' का 'व्' किया है । 'वसू' के 'ऊ' का 'व्', 'इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम्' १/२/२१ से होनेवाला ही था, तथापि उसके लिए 'स्यादौ वः ' २/१/५७ सूत्र बनाया, उससे सूचित होता है कि 'इवर्णादे'....१ / २ / २१ से होनेवाला 'वत्व', 'धातोरिवर्णोवर्णस्ये' - २/१/५० से होनेवाले 'इय्, उव्' से बाध्य होगा क्योंकि 'धातोरिवर्णो' - २ / १/५० सूत्र पर है तथा 'वार्णात्प्राकृतम्' न्याय भी 'वत्व' का बाध करेगा, और 'उव्' आदेश करेगा, उसकी निवृत्ति के लिए 'स्यादौ वः ' २/१/५७ सूत्र किया है ।
७०
यदि यह न्याय न होता तो, 'क्विप् प्रत्ययान्त वसू' में स्थित धातुत्व गौण होने से, 'धातोरिवर्णोवर्णस्ये'-२ / १ / ५० से 'उव्' होनेवाला ही नहीं था, तो इसका बाध करने के लिए 'स्यादौ व: ' २/१/५७ सूत्र करने की जरूरत ही नहीं थी तथापि वह सूत्र बनाया, उससे सूचित होता है कि यह न्याय अनित्य होने से 'धातोरिवर्णोवर्णस्ये' - २/१/५० से, क्विप् प्रत्ययान्त शब्दगत गौण धातु के 'इवर्ण' और 'उवर्ण' का अनुक्रम से 'इय्, उव्' आदेश होगा ।
'प्रत्येक व्यवहार मुख्य के अनुसार ही होता है' ऐसा न्याय भी देखने को मिलता है । उदा. 'मुनीन्' में 'शसोऽता सश्च नः पुंसि' १/४/४९ सूत्र से 'मुनि' का 'इ कार' और 'शस्' का 'अ', दोनों स्थान होते हैं और दोनों के स्थान में एक दीर्घ करना है, इस परिस्थिति में 'इ' का दीर्घ करना या 'अ' का दीर्घ करना ? 'इ' मुख्य है, जबकि 'अ', 'शसोऽता सह' में 'सह' के अर्थ से निर्दिष्ट होने से गौण है, अतः 'इ' और 'अ', दोनों के स्थान में मुख्य 'इ' का आसन्न दीर्घ 'ई' होगा । किन्तु इस न्याय से सिद्ध होनेवाला कार्य, 'गौणमुख्ययोर्मुख्ये....' न्याय से भी सिद्ध होता है, अतः इस न्याय का गौणमुख्ययोर्मुख्ये.....न्याय में ही समावेश कर दिया है ।
"गौण (अप्रधान), मुख्य (प्रधान) को अनुसरण करता है" न्याय भी है | उदा. 'नीलोत्पलम्, नीलं च तद् उत्पलं च' इस समास में 'नील' विशेषण है और 'उत्पल' विशेष्य । किन्तु दूसरी दृष्टि से 'उत्पल' विशेषण तथा 'नील' विशेष्य हो सकता है ।
प्रथम परिस्थिति में विभिन्न रंगयुक्त बहुत से 'उत्पल' में से 'नील' रंगयुक्त 'उत्पल' को अलग करने के लिए 'नील' विशेषण रखा है, वहाँ 'उत्पल' विशेष्य है ।
दूसरी परिस्थिति में 'नील' रंगयुक्त विभिन्न वस्तुओं में से 'उत्पल' को अलग करना है। इसलिए, 'नील' विशेष्य है, और 'उत्पल' विशेषण है । इस परिस्थिति में 'विशेषणं विशेष्येणैकार्थं कर्मधारयश्च' ३/१/९६ से कर्मधारय समास करते समय 'उत्पलनीलम्' होने की प्राप्ति है किन्तु ऐसा होता नहीं है, क्योंकि 'द्रव्याश्रया गुणाः' न्याय से गुण अप्रधान होने से, 'नील' शब्द का ही
१. यहाँ य लोप करने के लिए श्रीहेमहंसगणि तथा श्रीलावण्यसूरिजी ने योऽशिति ४ / ३ / ८० सूत्र दिया है किन्तु य्वोः व्यव्यञ्जने लुक् ४/४/१२१ सूत्र से य लोप होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org