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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ३३)
९५ की प्रवृत्ति नहीं होती है' इस प्रकार भाष्य में बताया है और यही वचन पाणिनीय परम्परा का होने से सिद्धहेम की परम्परा में इसका उपयोग न हो सके ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि वही वचन भी युक्तिपूर्वक किया गया है । 'अनुबन्ध' की संभावना हो ऐसे विशिष्ट रूप का निर्देश किया गया हो, तो ही 'सानुबन्ध' या 'निरनुबन्ध' के ग्रहण की शंका हो सकती है और इसका विचार किया जाता है किन्तु यदि केवल वर्ण का ही ग्रहण किया गया हो तो इस प्रकार का संशय ही नहीं होता है । अतः वहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति भी नहीं होती है तथा 'र: पदान्ते.....' १/३/५३ सूत्र में केवल वर्ण द्वारा निर्देश किया होने से 'सानुबन्ध' या 'निरनुबन्ध' के ग्रहण का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है । अत: उसी न्याय की अपेक्षा इस न्याय की अनित्यता नहीं बतानी चाहिए। कदाचित् क्वचित् अनित्यता का फल दिखायी पडता हो तो 'ज्ञापकसिद्धं न सर्वत्र' न्याय का ही आश्रय करना चाहिए, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी मानते हैं।
___ यह न्याय कातन्त्र की दुर्गसिंहकृत परिभाषावृत्ति और भावमिश्रकृत परिभाषावृत्ति व कालापपरिभाषापाठ में उपलब्ध नहीं है ।
॥३३॥ एकानुबन्धग्रहणे न द्व्यनुबन्धकस्य ॥ एक अनुबन्ध वाले का ग्रहण किया हो तो दो अनुबन्धवाले का ग्रहण नहीं करना चाहिए ।
सूत्र में यदि एक अनुबन्धयुक्त शब्द का ग्रहण किया हो तो उसी सूत्र से होनेवाला कार्य, उसी एक अनुबन्धयुक्त शब्द से होता है किन्तु वह और उससे भिन्न दो या तीन अनुबन्धयुक्त शब्द से नहीं होता है।
सूत्र में एक अनुबन्धयुक्त शब्द का निर्देश हो तो, उसी शब्द में जो अनुबन्ध है, वही अनुबन्ध दो, तीन, चार अनुबन्धयुक्त शब्द में हो तब, उसी एक अनुबन्धयुक्त शब्द के साथ साथ दूसरे दोतीन-चार अनुबन्धयुक्त शब्दों का ग्रहण हो जाता था, उसका निषेध करने के लिए यह न्याय है ।
उदा. 'य्यक्ये' १/२/२५, यहाँ 'अक्ये' में एक अनुबन्धयुक्त 'य' प्रत्यय का वर्जन किया है और वही केवल एक 'क्' अनुबन्धयुक्त 'य' भाव-कर्म में 'क्यः शिति' ३/४/७० सूत्र से होनेवाला 'क्य' प्रत्यय है। अत: इस न्याय के बल से 'क्यन, क्यङ' और 'क्य ष' आदि प्रत्ययों का वर्जन नहीं होता है क्योंकि वे दो या तीन अनुबन्धयुक्त हैं । अत एव 'क्यन्' और 'क्य ' प्रत्यय पर में आने पर 'ओ' और 'औ' का अनुक्रम से 'अव्' और 'आव्' होता ही है। उदा. 'गौरिवाचरति गव्यते' और 'गामिच्छति गव्यति, नौरिवाचरति नाव्यते' और 'नावमिच्छति नाव्यति ।' प्रयोगों में जब 'अमाव्ययात् क्यन् च' ३/४/२३ से 'क्यन्' और 'क्यङ्' ३/४/२६ सूत्र से क्यङ् होगा तब ‘य्यक्ये' १/२/२५ सूत्र से ही 'अव्' और 'आव्' आदेश होकर 'गव्यति, गव्यते' और 'नाव्यति, नाव्यते' प्रयोग सिद्ध होंगे।
'दीर्घश्चियङ्यक्क्येषु च' ४/३/१०८ सूत्रगत 'क्येषु' बहुवचनान्त निर्देश से इस न्याय का
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