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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ३२)
नकारादेश का गौण रूप से किये गए विधान को इस न्याय का ज्ञापक बताया और 'च' गौण होने से इस न्याय का अर्थ सिद्ध होता है । यह अन्योन्याश्रय दोष दिखायी पडता है, अतः 'अन्वाचयवाचक' चकार से किया गया विधान इस न्याय का ज्ञापक नहीं बन पाता है।
अत एव पाणिनीय व्याकरण में परिभाषेन्दुशेखर में इस न्याय का संग्रह नहीं किया है। यद्यपि व्याडि के परिभाषासूचन में यह न्याय है । हैमव्याकरण के 'न्यायसंग्रह' के पूर्ववर्ती प्रत्येक परिभाषा संग्रह में वह उपलब्ध है, किन्तु बाद के किसी भी संग्रह में नहीं है, अत: ऐसा अनुमान हो सकता है कि उपर्युक्त कारण से ही, पिछले परिभाषा संग्रह में इस न्याय को स्थान नहीं मिला है।
॥३२॥ निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य । यदि 'निरनुबन्ध' का ग्रहण संभव हो तो 'सानुबन्ध'का ग्रहण नहीं करना ।
'कार्यं स्यात्' शब्द इस न्याय और अगले न्याय में जोड़ देना । सूत्र में 'अनुबन्ध' रहित कोई शब्द का उच्चार करके, जो कार्य बताया हो, वही कार्य, निरनुबन्ध शब्द का ग्रहण संभव हो तो (उससे होता है, किन्तु) सानुबन्ध शब्द से नहीं होता है।
[विशेष स्पष्टता की गई न होने से दोनों के ग्रहण का संभव था, इसका निषेध करने के लिए यह न्याय है ।]
उदा. 'येऽवणे' ३/२/१०० यहाँ 'तस्मै हिते' ७/१/३५ इत्यादि सूत्र से विहित निरनुबन्ध 'य' प्रत्यय ही पर में आने पर 'नासिका' का 'नस्' आदेश होता है । जैसे 'नासिकायै हितम् नस्यं घृतम्' किन्तु सानुबन्ध 'ज्य' स्वरूप 'य' प्रत्यय पर में आने पर 'नासिका' का 'नस्' आदेश नहीं होता है। जैसे 'नासिकाऽत्रास्ति' यहाँ 'सुपन्थ्यादेर्व्यः' ६/२/८४ से 'ज्य' प्रत्यय आने पर 'नासिक्यं
नगरम्' होगा।
'न यि तद्धिते' २/१/६५ सूत्र में 'ये' स्थान पर 'यि' रूप निर्देश किया है वह इस न्याय का ज्ञापक है । इस सूत्र में केवल ‘य्' रूप व्यंजन का ग्रहण करने से उसी प्रकार का कोई भी प्रत्यय न होने से, वहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होगी और 'निरनुबन्ध' तथा 'सानुबन्ध', दोनों प्रकार के प्रत्ययों का ग्रहण होगा।
यदि अकार के साथ 'य' का ग्रहण किया होता तो, उसी प्रकार का निरनुबन्ध 'य' प्रत्यय होने से, इस न्याय के कारण सानुबन्ध यकारादि प्रत्यय का ग्रहण संभव न होता । अतः इस न्याय की आशंका से ही, सानुबन्ध का ग्रहण करने के लिए 'ये' के स्थान पर 'यि' निर्देश किया है।
यहाँ किसी को शंका हो सकती है कि सानुबन्ध 'य' पर में आने पर, 'न यि तद्धिते' २/ १/६५ सूत्र की प्रवृत्ति कहाँ होती है जिसके कारण 'ये' के स्थान पर 'यि' निर्देश किया गया है ? इसका प्रत्युत्तर देते हुए कहा गया है कि 'धुरं वहति' में 'धुरो यैयण' ७/१/३ सूत्र से 'य' प्रत्यय होगा, तब 'धुर्यः' होगा । यहाँ 'भ्वादेर्नामिनो' ....२/१/६३ से प्राप्त दीर्घविधि का निषेध 'न यि
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