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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ३४)
९७ लक्षण/शास्त्र में कहीं निषेध किया नहीं होने से अनुबन्ध के कारण उत्पन्न असदृशता, अनेकस्वरत्व और अनेकवर्णत्व का निषेध करने के लिए यह न्याय है।।
असारूप्य इस प्रकार है । 'अण्' प्रत्यय और 'ड' प्रत्यय दोनों में अनुक्रम से 'ण' और 'ड्' को 'इत्' संज्ञा होने पर, केवल 'अ' ही शेष रहता है अर्थात् अनुबन्धरहित 'अण्' और 'ड' प्रत्यय समान ही है, किन्तु अनुबन्ध के कारण दोनों के स्वरूप भिन्न भिन्न प्रतीत होते हैं, वह यहाँ मान्य नहीं रखा गया है, अर्थात् 'अण्' और 'ड' प्रत्ययों को अन्योन्य 'असरूप/असदृश' प्रत्यय के रूप में माने नहीं हैं, अत एव 'आतो डोऽह्वावामः' ५/१/७६ से 'ह्वा, वा' और 'मा' धातु से भिन्न आकारान्त धातु से 'ड' प्रत्यय होगा और वह अपवाद होने से वही 'ड' प्रत्यय के विषय में 'कर्मणोऽण' ५/१/७२ से 'अण्' रूप 'औत्सर्गिक' प्रत्यय विकल्प से नहीं होगा क्योंकि 'ड' और 'अण्' को असरूप नहीं मानें हैं, अतः 'असरूपोऽपवादे वोत्सर्गः प्राक् क्तेः'५/१/१६ से विकल्प करने की अनुमति नहीं मिलती है। यदि 'अण्' प्रत्यय हो तो 'गां ददाति गोदः' के स्थान पर 'गोदाय:' जैसा अनिष्ट रूप होगा।
भावार्थ इस प्रकार है - : सामान्यतया आपवादिक प्रत्यय द्वारा औत्सर्गिक प्रत्यय का सर्वथा/ पूर्णतया बाध होता है । अत एव 'असरूपोऽपवादे'....५/१/१६ सूत्र बनाया है। उसी सूत्र का अर्थ इस प्रकार है । 'आ तुमोऽत्यादिः कृत्' ५/१/१ सूत्र से लेकर, कृत्प्रत्यय के अधिकार में 'स्त्रियां क्तिः' ५/३/९१ सूत्र से पूर्व जो प्रत्यय आते हैं, उसमें आपवादिक प्रत्यय के विषय में, औत्सर्गिक प्रत्यय सर्वथा/पूर्णतया बाधित नहीं होता है किन्तु विकल्प से वही औत्सर्गिक प्रत्यय होता है, यदि वह औत्सर्गिक प्रत्यय आपवादिक प्रत्यय के साथ समान रूपवाला न हो तो। किन्तु यदि वही आपवादिक प्रत्यय, औत्सर्गिक प्रत्यय के सदृश हो तो, उसी आपवादिक प्रत्यय से औत्सर्गिक प्रत्यय सर्वथा बाधित होता है।
यहाँ 'अण' प्रत्यय औत्सर्गिक है क्योंकि 'कर्मणोऽण' ५/१/७२ से उसका सामान्यतया विधान किया गया है और 'ड' प्रत्यय आपवादिक है क्योंकि 'आतो डोऽह्वावामः' ५/१/७६ से होता है और 'कर्मणोऽण' ५/१/७२ से जहाँ 'अण' की प्राप्ति है, वहाँ 'अण्' के स्थान पर 'ड' प्रत्यय होता है, अतः यदि यह न्याय न होता तो, आपवादिक 'ड' प्रत्यय के विषय में 'अण्' प्रत्यय भी होता क्योंकि दोनों प्रत्यय के अनुबन्ध भिन्न-भिन्न होने से वे प्रत्यय भी असदृश हुए, अत एव 'असरूपोऽपवादे वोत्सर्गः प्राक् क्तेः' ५/१/१६ से अपवाद के विषय में औत्सर्गिक 'अण्' प्रत्यय भी होगा, किन्तु ऐसा नहीं होता है, आपवादिक 'ड' प्रत्यय से औत्सर्गिक 'अण्' प्रत्यय बाधित होता ही है क्योंकि अनुबन्धकृत असारूप्य मान्य नहीं है।
'क-वृषि-मृजि-शंसि-गुहि-दुहि-जपो वा' ५/१/४२ सूत्र में 'क्यप्' का विकल्प करने के लिए 'वा' का ग्रहण किया है, उससे इस अंश का ज्ञापन होता है । इस सूत्र में 'वा' द्वारा विकल्प करने से, जब 'क्यप्' नहीं होगा तब 'ऋवर्णव्यञ्जनाद् घ्यण' ५/१/१७ से औत्सर्गिक 'घ्यण' प्रत्यय भी होगा । यदि यह न्याय न होता तो, वही 'घ्यण' प्रत्यय अनुबन्ध के कारण क्यप्' प्रत्यय के सदृश
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