________________
९४
न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण )
तद्धिते' २/१/६५ से किया गया है। इस प्रयोग में कुछेक 'य' प्रत्यय को 'टित्' मानते हैं, उनके मतानुसार भी 'धुर्य' में 'भ्वादेर्नामिनो..... २/१/६३ से प्राप्त दीर्घत्व का निषेध 'न यि तद्धिते' २/ १/६५ से ही होता है । यदि 'यि' के स्थान पर 'ये' निर्देश किया होता तो, जो लोग 'य' प्रत्यय को 'टित्' मानते हैं, उनके लिए यह 'य' प्रत्यय पर में आने पर, इस न्याय के कारण, 'भ्वादेर्नामिनो'...२/ १/६३ से प्राप्त दीर्घत्व का निषेध नहीं हो सकता, अतः उनके मत में भी इस प्रयोग में दीर्घत्व को इष्ट नहीं माना है । इसलिए यहाँ 'यि' निर्देश किया गया है । 'य' प्रत्यय को 'टित्' करने से क्या लाभ ? इसका प्रत्युत्तर देते हुए कहा गया है कि 'स्त्रीत्व' की विवक्षा में 'य' प्रत्यय 'टित्' होने से ङी प्रत्यय होगा और 'न यि तद्धिते' २ / १ / ६५ से दीर्घत्व का निषेध होने के बाद 'व्यञ्जनात्तद्धितस्य' २/४/८८ से 'य' प्रत्यय का लोप होने पर 'धुरी' प्रयोग भी होगा। यह प्रयोग 'टित्' माननेवालों के मतानुसार है और वही मत आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजी को भी मान्य है ।
यह न्याय अनित्य है क्योंकि आगे 'निरनुबन्धग्रहणे सामान्यग्रहणम्' न्याय आता है ।
यहाँ श्रीमहंसगणि ने कहा है कि 'ये' के स्थान पर 'यि' निर्देश करने से 'सानुबन्ध' और 'निरनुबन्ध' दोनों प्रकार के यकारादि प्रत्ययों का संग्रह होगा क्योंकि केवल 'य्' स्वरूप कोई प्रत्यय नहीं है और इसे इस न्याय का ज्ञापक माना है किन्तु श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'ये' निर्देश करने पर ढाई मात्रा होती है, जबकि 'यि' निर्देश करने से देढ मात्रा होती है । अत: मात्रालाघव के कारण से 'य' निर्देश किया है, अतः वह सार्थक है, इसलिए वह इस न्याय का ज्ञापक नहीं बन पाता है । और यह ज्ञापक 'स्वांश' में चरितार्थ नहीं है क्योंकि जहाँ सानुबन्ध 'य' प्रत्यय हो वहाँ 'न यि तद्धिते' २/१/६५ सूत्र की प्रवृत्ति ही नहीं होती है और श्रीहेमहंसगणि ने 'धुर्य' शब्द में जो प्रवृत्ति बतायी है, वह यद्यपि सूत्रकार आचार्यश्री ने बृहद्वृत्ति में दिखायी है, तथापि इस व्याकरण में 'धुरो यैण' ७/१/३ से होनेवाला 'य' प्रत्यय निरनुबन्ध ही है और अन्य व्याकरण में उसे 'टित्' बताया है और 'टित्' करने से स्त्रीलिङ्ग में "ङी' प्रत्यय होने पर 'धुरी' रूप सिद्ध होगा । यह प्रयोग भी आचार्यश्री को मान्य है तथापि परतन्त्र / अन्य परम्परा के 'टित्व' का अपने शास्त्र में न्यायों की व्यवस्था करने के लिए आश्रय करना उचित नहीं है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी मानते हैं ।
इस न्याय का पूर्व अस्तित्व स्वीकार करके, यदि 'ये' पाठ करने पर सानुबन्ध में प्रवृत्ति नहीं होगी, ऐसी आशंका से 'यि' पाठ किया है और इसके द्वारा इस न्याय का ज्ञापन होता है, ऐसा कहना संभव नहीं है क्योंकि 'यि' पाठ करने में ऊपर बताया उसी तरह कोई विशेष प्रयत्न नहीं है क्योंकि जहाँ केवल वर्ण का ग्रहण किया हो वहाँ विशिष्ट स्वरूप का उपादान नहीं होने से सानुबन्ध या निरनुबन्ध के ग्रहण में कोई शंका नहीं होगी । भाष्यकार ने भी केवल वर्णग्रहण के विषय में प्रस्तुत न्याय की अप्रवृत्ति बतायी है । तात्पर्य यह है कि जहाँ सानुबन्ध और निरनुबन्ध ऐसे दो विशिष्ट शब्दस्वरूप की संभावना हो वहाँ ही इस न्याय की प्रवृत्ति स्वीकृत है ।
श्री लावण्यसूरिजी मानते हैं कि 'निरनुबन्धग्रहणे सामान्यग्रहणम्' न्याय द्वारा, इस न्याय की अनित्यता बताना उचित नहीं है । इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि 'वर्णग्रहण में इस न्याय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org