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न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) [ यहाँ 'शस्' के 'स्' का 'न्' करने का कार्य गौण है, जबकि समान स्वर को दीर्घ करने का कार्य मुख्य है अतः गौण कार्य की निवृत्ति के साथ मुख्य कार्य की निवृत्ति नहीं होती है। जबकि 'एतान् गा: पश्य' में दीर्घविधि मुख्य होने से उसके अभाव में 'नत्व' रूप गौणविधि का भी अभाव होगा।]
'शसोऽता सश्च नः पुंसि' १/४/४९ सूत्र में 'नत्व' विधि का अन्वाचय' अर्थवाचक 'चकार' से किया हुआ निर्देश, इस न्याय का ज्ञापक है ।
जहाँ गौणत्व से विवक्षित समुच्चय हो वहाँ अन्वाचय कहा जाता है और उसी गौणत्व का विशेष फल केवल गौण कार्य की निवृत्ति होने पर मुख्य कार्य की निवृत्ति का अभाव ही है।
इस न्याय की अनित्यता दिखायी नहीं पडती है ।
'अन्वाचय' द्वारा किया हुआ विधान ही, उसी विधान का अनुषंगिकत्व बताता है । अत: वहाँ मुख्य विधान को अलग बताने की कोई आवश्यकता नहीं है, जैसे कि शिष्य को 'भिक्षामट, गां चानय' कहने पर शिष्य जब भिक्षा लेने के लिए जायेगा तब यदि गाय दिखायी देगी, तो ले के आयेगा, किन्तु गाय नहीं दिखायी देगी तो नहीं लायेगा। अत: गुरुनिर्दिष्ट कार्य शिष्य ने नहीं किया है, ऐसा नहीं माना जायेगा क्योंकि भिक्षा का मुख्य कार्य हो ही गया है । वैसे ही यहाँ 'शसोऽता सश्च नः पुंसि' १/४/४९ से होनेवाली विधि में दीर्घविधि ही मुख्य है, और पुल्लिङ्ग होने पर 'स्' का 'न्' आदेश होगा तथा पुल्लिङ्ग न होने पर 'स्' का 'न्' आदेश नहीं होता है अर्थात् वही व्याप्य होने से नियत नहीं है । तथा न्यायशास्त्र का सिद्धांत है कि जहाँ व्यापक की निवृत्ति हो वहाँ व्याप्य की निवृत्ति होती ही है। उदा. जहाँ अग्नि न हो वहाँ धूम भी नहीं होता है। किन्तु जहाँ व्याप्य की निवृत्ति हो वहाँ व्यापक की निवृत्ति हो भी सकती है या नहीं भी हो सकती है । उदा. अग्नि से तप्त लोह के गोलक/गेंद में (अयोगोलक में ) व्याप्य धूम नहीं है तथापि व्यापक अग्नि तो है ही । अतः यह न्याय न्यायशास्त्रसिद्ध होने से ज्ञापक की आवश्यकता नहीं है। . वस्तुतः 'अन्वाचय' द्वारा किया हुआ विधान इस न्याय का ज्ञापक है, ऐसा जो कहा गया है वह उचित/सही नहीं है क्योंकि ऐसा करने पर, उसी विधान में 'ऐच्छिकत्वापत्ति' आयेगी और 'धेनूः, मती:' इत्यादि रूप इस न्याय से सिद्ध नहीं हो सकेंगे किन्तु सूत्र के जितने अंश का निमित्त होता है इतने अंश में सूत्र की प्रवृत्ति होती है और जितने अंश का निमित्त न हो इतने अंश में सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होती है।
'शसोऽता सश्च नः पुंसि' १/४/४९ सूत्र में दो वाक्य हैं । 'शस्' के 'अ' के साथ पूर्व का समान स्वर दीर्घ होता है । वह एक वाक्य है और पुल्लिङ्ग में 'शस्' के 'स्' का 'न्' होता है । वही दूसरा वाक्य है । इसमें प्रथम वाक्य मुख्य है, अतः उसकी प्रवृत्ति होने पर ही गौण की प्रवृत्ति होती है । अतः 'एतान् गाः पश्य' में मुख्य की प्रवृत्ति नहीं की है इसलिए 'नत्व' होने का प्रश्न ही नहीं है तथा 'धेनू:' आदि में प्रथम मुख्य वाक्य की प्रवृत्ति होगी, किन्तु निमित्त का ही अभाव होने से दूसरे वाक्य की प्रवृत्ति नहीं होगी, अत: 'समुच्चीयमान' अर्थ लेने में भी कोई दोष नहीं है।
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