________________
प्रथम वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. २३)
७५
और लाक्षणिक होने से वह गौण है ऐसा पूर्वन्याय में बताया है । अतः 'कृत्रिम' केवल 'अप्रसिद्ध ' होने से गौण नहीं हो जाता है क्योंकि लोकप्रसिद्धि से शास्त्रप्रसिद्धि बलवती होती है । अतः अप्रसिद्धत्व का यहाँ नितान्त / पूर्णरूप से अभाव ही है। यदि ऐसा न होता तो वह किसी भी अवस्था में बलवान् नहीं बन पायेगा और ऐसा भी नहीं कहा जाएगा कि यदि इस प्रकार से शास्त्रप्रसिद्धि ही बलवती होती है तो प्रस्तुत न्याय की रचना क्यों की गई, क्योंकि न्याय कदापि अपूर्व अर्थबोध नहीं करवाता है । वह केवल व्याकरण के सूत्रों की रचना से ध्वनित नियमों का ही स्पष्टीकरण करता है ।
पाणिनीय व्याकरण के महाभाष्य में 'बहु-गण-वतु इति - सङ्ख्या' (पा.सू. १/१/२३ ) की चर्चा करते हुए, इस न्याय को 'लोकव्यवहारसिद्ध' बताया है । यदि व्यवहार में / लोक में कोई भी व्यक्ति का 'गोपालक' या 'कटजक' नाम हो, तो 'गोपालकमानय, कटजकमानय' कहने पर 'गोपालक' और 'कटजक' नाम का व्यक्ति ही लाया जाता है किन्तु उनके यौगिक अर्थयुक्त गोपालक (ग्वाला ) या कट के ऊपर जिसका जन्म हुआ है ऐसे 'कटजक' को लाया नहीं जाता है। इस प्रकार यहाँ परिभापानिष्पत्र अर्थात् संज्ञास्वरूप 'कृत्रिम' का ही ग्रहण होता है, किन्तु अकृत्रिम अर्थात् यौगिक अर्थयुक्त का ग्रहण नहीं होता है । अतः 'बहु-गण- वतुडति सङ्ख्या' (पा.सू.१/१/२३ ) सूत्रगत 'सङ्ख्या' शब्द को उद्देश्य की कोटि में / कक्षा में रखना चाहिए, ऐसा कहा है । अर्थात् इसी सूत्र का अर्थ इस प्रकार से करना कि 'बहु' शब्द, 'गण' शब्द, 'वतु' प्रत्ययान्त, 'इति' प्रत्ययान्त और सङ्ख्यावाचक शब्दों को सङ्ख्या संज्ञा होती है । यदि इस प्रकार से सङ्ख्यावाचक शब्दों को भी सङ्ख्या संज्ञा न करने से 'बहु, गण', 'वतु' प्रत्ययान्त और 'इति' प्रत्ययान्त शब्दों का ही 'सङ्ख्या' शब्द से ग्रहण होता, क्योंकि उन्हें कृत्रिम 'सङ्ख्या - संज्ञाएँ मानी जाती, जबकि एक, द्वि, आदि अकृत्रिम/स्वाभाविक सङ्ख्याएँ होने से प्रस्तुत न्याय से उनका ग्रहण नहीं होगा ।
जबकि सिद्धम की परम्परा में 'डत्यतु सङ्ख्यावत्' १ / १ / ३९ और 'बहु-गणं भेदे १/१/ ४० से सङ्ख्या-संज्ञा नहीं करते हैं किन्तु सङ्ख्यावत् करते हैं । अतः वहाँ प्रस्तुत न्याय की कोई आवश्यकता नहीं है ।
यह न्याय लोकसिद्ध होने से, परिभाषेन्दुशेखर में नागेश ने इसे परिभाषा के रूप में नहीं दिया है किन्तु 'उभयगतिरिह भवति' न्याय के उत्थान के लिए, उसके बीजरूप में अवतरणिका में दिया है।
यह न्याय व्याडि के परिभाषासूचन, शाकटायन के परिभाषासंग्रह में दिया है। पुरुषोत्तमदेवकृत लघुपरिभाषावृत्ति में इसी न्याय में ही 'क्वचिदुभयगतिः' न्याय दिया है तथा नीलकंठ दीक्षित विरचित परिभाषावृत्ति में इस न्याय का अनित्यत्व बताया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org