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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. २५) दोनों के ग्रहण की उपस्थिति हो वहाँ, दोनों का ग्रहण करना चाहिए, ऐसा यह न्याय कहता है । जहाँ 'प्रकरण' का ज्ञान ही न हो, वहाँ उसके शब्द के आधार पर उपर्युक्त न्याय से केवल 'कृत्रिम' का ही ग्रहण करना ।
वस्तुतः कहाँ उभयगति करनी ? कहाँ 'कृत्रिम' का ग्रहण करना ? और कहाँ केवल 'अकृत्रिम' का ग्रहण करना ? उसके लिए केवल लक्ष्यानुसारी व्याख्यान को महत्त्व देना चाहिए क्योंकि ये दोनों न्याय अस्थिर होने से, केवल इन न्यायों के आधार पर व्यवस्था करना संभव नहीं
॥२५॥ सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः ॥ कोई भी कार्य, अन्य सूत्र से सिद्ध हो सकता हो, तथापि उसके लिए, नये सूत्र की रचना की जाय तो, वही सूत्र नियम सूत्र कहा जाता है।
सूत्र की निरर्थकता की आशंका दूर करने के लिए यह न्याय है ।
कोई भी कार्य एक सूत्र से सिद्ध हो तथापि, उसके लिए नये सूत्र की रचना, नियम के लिए होती है।
उदा. 'दण्डी' में 'नि दीर्घः '१/४/८५ से दीर्घ हो सकता है, तथापि यहाँ दीर्घ करने के लिए 'इन्हन्पूषार्यम्णः शिस्योः ' १/४/८७ सूत्र बनाया, वह नियमार्थ है । और वह नियम इस प्रकार हुआ, 'इन् हन् पूषन्' और 'अर्यमन्' का उपान्त्य स्वर, शि' और 'सि' पर में आने पर ही दीर्घ होता है, किन्तु अन्य 'घुट्' प्रत्यय पर में आने पर दीर्घ नहीं होता है, अत: 'दण्डिनौ, दण्डिनः' इत्यादि प्रयोग में 'नि दीर्घः' १/४/८५ से होनेवाले दीर्घत्व का बाध होगा।
ऐसे सूत्रों का पुन: सूत्रारम्भ ही इस न्याय का ज्ञापक है । यदि यह न्याय न होता तो 'इन्हन्पूषार्यम्ण: शिस्योः ' १/४/८७, विधि-सूत्र ही होता तो इस सूत्र का पुन: आरम्भ न करते, क्योंकि इस सूत्र से होनेवाला कार्य 'नि दीर्घः' १/४/८५ से हो ही जाता है, तथापि इसी सूत्र की रचना की । इससे सूचित होता है कि कोई भी कार्य अन्य सूत्र से सिद्ध होने पर भी, यदि इसके लिए नये सूत्र की रचना की जाय तो वही सूत्र नियम के लिए होता है।
यह न्याय अनित्य है अत एव 'पूजार्हः' इत्यादि प्रयोग में ‘लिहादिभ्यः' ५/१/५० से 'अच्' प्रत्यय सिद्ध होनेवाला था, तथापि 'अर्होऽच्' ५/१/९१ आदि छः सूत्रों का पुनः आरम्भ किया है, वह नियम के लिए नहीं होता है, किन्तु 'अर्ह' आदि को 'लिहादि' से पृथग् करने के लिए ही है।
इस न्याय को पाणिनीय परम्परा तथा शाकटायन परम्परा में न्याय के रूप में स्वीकृत नहीं किया है । यद्यपि 'नियम' की व्याख्या महाभाष्यकार ने दी है तथापि परिभाषा/न्याय के रूप में तो केवल ‘कातन्त्र, कालाप, जैनेन्द्र' और 'भोज' व्याकरण में ही देखने को मिलता है।
इस न्याय के अनित्यत्व सम्बन्धित उदाहरण में 'अर्होऽच्' ५/१/९१ से लेकर 'आङ : शीले'
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