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न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) श्रीहेमहंसगणि ने 'अनतो लुप्' १/४/५९ सूत्र द्वारा इस न्याय की अनित्यता बतायी है। श्रीलावण्यसूरिजी को यह मान्य नहीं है । वे कहते हैं कि 'अनतः' में 'प्रसज्यन' नहीं है किन्तु "पर्युदास नञ्' है। जबकि श्रीहेमहंसगणि 'प्रसज्य नञ्' मानते हैं । यदि 'अनत:' में 'पर्युदास नञ्' को मानें तो किसी प्रकार का सादृश्य लेना ? 'स्वरसादृश्य' लेने पर पयः' आदि में इसी सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होगी । अतः श्रीलावण्यसूरिजी ने वर्णसादृश्य ग्रहण किया है । अत: ‘पयः' आदि में 'स' आदि व्यञ्जन वर्णरूप ही होने से 'अवर्णभिन्न्त्वे सति वर्णत्वयुक्ताभ्यां स्वरव्यञ्जनाभ्या परयो: स्यमोर्लुप् स्यात्' अर्थ हो सकेगा।
___ 'अनत:' में 'प्रसज्य नब्' क्यों नहीं है, इसकी स्पष्टता करते हुए, वे कहते हैं कि मीमांसकों की 'पर्युदास-प्रसज्य नञ्' की कारिका का अर्थ इस प्रकार है, 'पर्युदास नञ्' का सम्बन्ध उत्तरपद के साथ होता है, जबकि 'प्रसज्य नञ्' में 'न' का क्रिया के साथ अन्वय/सम्बन्ध होता है, अतः 'प्रसज्य नञ्' में 'नञ्' असमर्थ है क्योंकि वह क्रिया से सापेक्ष है, अत: 'अनतः' समास नहीं हो सकेगा । तथापि समास किया है, वह सौत्रत्वात् मानना पड़ेगा । यह कल्पना ज्यादा क्लिष्ट है । अतः 'अनतः' में 'पर्युदास नञ्' का ही स्वीकार करना चाहिए।
श्रीहेमहंसगणि ने प्राचीन उक्ति 'पर्युदासः सदृग्ग्राही, प्रसज्यस्तु निषेधकृत्' के आधार पर 'अनतः' में 'पर्युदास नञ्' का स्वीकार किया है ।
संक्षेप में, दोनों की प्रसज्य' और 'पर्युदास' की व्याख्या में ही मूलभूत अन्तर है, अत: यही समस्या खड़ी हुई है।
किन्तु सूत्रकार आचार्यश्री ने ‘पर्युदास नञ्' और 'प्रसज्य नञ्' की व्याख्या स्पष्ट रूप से दी है । वे कहते हैं कि "पर्युदास नञ् चार प्रकार के हैं (१) सदृग्ग्राही (तत्सदृशः) (२) तद्विरुद्धः (३) तदन्यः (४) तदभावः ।" अतः यहाँ अनतः' में 'पर्युदास नञ्' ही है ऐसा स्वीकार करने पर भी 'पर्युदास' के उपर्युक्त प्रकार में से चौथा प्रकार लेकर, 'अत्' का अभाव ही लिया जा सकता है, अर्थात् जहाँ जहाँ शब्द के अन्त में 'अ' न हो, वहाँ वहाँ नपुंसक लिङ्ग में 'सि' और 'अम्' का लोप होता है, उस (पर्युदास नञ् ) के उदाहरण के रूप में 'अवचनम्' तथा 'अवीक्षणम्' प्रयोग दिये हैं और उसका अर्थ वचनाभाव और वीक्षणाभाव किया है। प्रसज्य नञ् के बारे में वे कहते हैं कि 'प्रसज्यप्रतिषेधे तु नञ् पदान्तरेण सम्बध्यते इति उत्तरपदं वाक्यवत् स्वार्थ एव वर्तते । तत्राऽसामर्थेऽपि बाहुलकात् समासः ।' उदा. 'सूर्यमपि न पश्यन्ति, असूर्यंपश्या राजदाराः । पुनर्न गीयन्ते अपुनर्गेयाः श्लोकाः' । अतः 'प्रसज्य नञ्' सम्बन्धित श्रीलावण्यसूरिजी की मान्यता व श्रीहेमचंद्रसूरिजी का यह कथन उचित है किन्तु 'पर्युदास नञ्' के बारे में, श्रीलावण्यसूरिजी ने, सूत्रकार श्रीहेमचन्द्राचार्य द्वारा उक्त चार प्रकार में से केवल 'तत्सदृशः' प्रकार ही ग्रहण किया है किन्तु 'तद्विरुद्धः, तदन्यः तदभावः' का स्वीकार नहीं किया है। यह बात उनके द्वारा 'अनतः' में ग्रहण किये गए वर्णसादश्य से स्पष्ट होती है।
. 'प्रसज्य नञ्', के बारे में, एक ओर परिभाषा 'जैनेन्द्र परिभाषावृत्ति' में प्राप्त है वह इस
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