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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'रघुवर्णात्'..... २/३/६३ सूत्र में, 'एक' शब्द से ध्वनित नियम इस प्रकार है । र, ष, त्र वर्ण से पर में, नित्य एकपद में, आये हुए, अन्त्य न हो, ऐसे 'न' का 'ण' होता है। और वह 'ल, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग,श' और 'स' से भिन्न वर्गों का व्यवधान आने पर भी होता है। यहाँ 'एकपदे' से नित्य हो ऐसा पद लेना, किन्तु जो समास है, वह नित्य पद नहीं कहा जाता है क्योंकि उसमें भिन्नभिन्न अनेक पद आते हैं। अत एव 'नृणाम्' इत्यादि में 'न' का 'ण' होता है किन्तु 'नृनाथः' इत्यादि में 'न' का 'ण' नहीं होता है।
यह न्याय अनित्य होने से 'शिरोऽधसः पदे समासैक्ये' २/३/४ सूत्र में 'ऐक्य' शब्द का प्रयोग किया है । इसी सूत्र में केवल 'समासे' कहने से 'ऐक्य' अर्थ आ जाता है । जैसे 'वौष्ठौतौ समासे' १/२/१७, तथापि 'शिरोऽधसः पदे समासैक्ये' २/३/४ में 'ऐक्य' शब्दप्रयोग हुआ है, वह इस न्याय की अनित्यता को सूचित करता है । उसके साथ-साथ (तदुपरांत) यहाँ 'ऐक्य' शब्द के प्रयोग द्वारा 'विचित्रा सूत्राणां कृतिः' न्याय भी सूचित किया है । यहाँ 'उक्त' अर्थ का भी प्रयोग हुआ है वह वैचित्र्य है।
__इस न्याय की अनित्यता के ज्ञापक के रूप में 'ऐक्य' शब्द के प्रयोग को बताया है, किन्तु कुछेक लोग इसका स्वीकार नहीं करते है क्योंकि उनके मतानुसार यह न्याय लोकसिद्ध ही है । तथापि इस न्याय का ज्ञापक बताया इससे इतना ही सूचित होता है कि इस लोकसिद्ध न्याय को भी व्याकरणशास्त्र में मान्य किया गया है, क्योंकि एक सिद्धांत ऐसा है कि जो न्याय ज्ञापकसिद्ध हो वही न्याय अनित्य हो सकता है। और जो न्याय लोकसिद्ध, न्यायसिद्ध या वाचनिकी परिभाषा के रूप में हो इसकी अनित्यता का ज्ञापन नहीं ही सकता है, । अतः उनके मतानुसार इसी 'ऐक्य' शब्दप्रयोग को 'द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति' न्याय या 'विचित्रा सूत्राणां कृतिः आचार्यस्य' न्याय का उदाहरण मानना चाहिए।
यह न्याय व्याडि से लेकर शाकटायन, चान्द्र, कातन्त्र, कालाप, जैनन्द्र, भोज, आदि के परिभाषा संग्रहों में उपलब्ध है, किन्तु उसके बाद पाणिनीय परम्परा के पुरुषोत्तमकृत परिभाषा वृत्ति सीरदेव, श्रीमानशर्म, नीलकंठ, नागेश आदि के परिभाषासंग्रहों में उपलब्ध नहीं है।
॥२९॥ निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः ॥ निमित्त रूप कारण का अभाव होते ही नैमित्तिक रूप कार्य का भी अभाव होता है।
'निमित्तेन चरति' वाक्य में 'चरति' ६/४/११ सूत्र से 'इकण' होने पर 'नैमित्तिक' शब्द बनता है । 'निमित्त' की निवृत्ति अर्थात् अभाव या लोप होने पर, 'निमित्त' के कारण हुआ कार्य भी निवृत्त होता है। . लोकमें/व्यवहार में, कुम्भ बनानेवाले कुम्हार का नाश होने पर भी, कुंभ का नाश नहीं होता है। कुम्हार कारण है और घट कार्य है। अर्थात् कारण का नाश होते ही कार्य की निवृत्ति का अभाव
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