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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. २९) होने पर भी, व्याकरण में कारण के अभाव में कार्य का भी अभाव हो जाता है ऐसा बताने के लिए यह न्याय है।
उदा. 'बिम्ब' शब्द से लत्ता विशेष नाम की विवक्षा में, स्त्रीत्व में 'गौरादित्वाद्' 'गौरादिभ्यो मुख्यान्डी: २/४/१९ से 'डी' प्रत्यय होने पर अस्य ड्याम् लुक् २/४/८६ से 'अ' कार का लोप होकर, 'बिम्बी' शब्द बनेगा । बाद में 'बिम्ब्याः फलम्' वाक्य में 'हेमादित्वाद्' 'अञ्' प्रत्यय पर में आने पर 'फले'- ६/२/५८ से 'अञ्' प्रत्यय का लोप होगा, बाद में 'ड्यादेगौणस्याक्विपस्तद्धितलुक्यगोणीसूच्योः' २/४/९५ से 'ङी' का लोप होगा, उसके साथ ही ङी के निमित्त से, 'अस्य ङ्या लुक् २/४/८६ से हुआ 'अकार लोप' भी निवृत्त होगा और 'अ' पुनः आकर' 'बिम्ब' शब्द होगा।
"बिम्ब' इत्यादि की सिद्धि के लिए 'न सन्धि- ङी'....७/४/१११ सूत्र में 'ङी लुक्' का, 'अकार लुक्' रूप कार्य में, स्थानिवद्भाव का निषेध, इस न्याय का ज्ञापक है। 'न सन्धि- ङी...' ७/४/१११ सत्र की वृत्ति में, 'ङी विधि में स्वर का आदेश का स्थानिवद्भाव नहीं होता है. अंश के उदाहरण स्वरूप 'बिम्बम्' प्रयोग रखा है।
बिम्ब्याः फलम्- बिम्बी + अञ्, 'हेमादित्वाद्' 'अब्' प्रत्यय होगा और 'फले' ६/२/५८ से 'अञ्' का लोप होगा । बाद में 'ड्यादेर्गौणस्याक्विपः....' २/४/९५ से 'ङी' का लोप होगा। यही 'ङीलुक्' रूप स्वरादेश पर निमित्तक है, यदि यह 'ङी लुक्' रूप स्वरादेश का स्थानिवद्भाव द्वारा 'डी' पुनः लाया जायेगा तो पर में 'डी' आने के कारण 'अस्य डयां लुक्' २/४/८६ से 'बिम्ब' के अकार का लोप करने का प्रसंग उपस्थित होगा और 'बिम्बम्' रूप सिद्ध नहीं होगा। अत एव 'अकार लुक्' रूप 'ङी विधि में 'ङी लुक् 'रूप स्वरादेश का स्थानिवद्भाव नहीं होगा।
___ यदि यह न्याय न होता तो, यह सब व्यर्थ होता क्योंकि 'अस्य ड्यां लुक' २/४/८६ से होनेवाला' 'अकार लुक' की निवृत्ति करने के लिए 'ङी लोप' का स्थानिवद्भाव का निषेध किया है, वही 'अकार' ही यहाँ उपस्थित नहीं है क्योंकि 'अञ्' प्रत्यय आने के पूर्व या 'अञ्' प्रत्यय का लोप होने से पूर्व ही 'बिम्बी' शब्द में 'ङी' होने से 'अकार' है ही नहीं क्योंकि 'डी' आने के साथ ही उसका लोप हुआ है । तो कौन से 'अकार' का लोप करने के लिए इतना प्रयत्न किया ?
किन्तु यह न्याय होने से 'ङीलुक्' होने पर, उसके निमित्त से हुआ 'अकार-लुक्' भी निवृत्त होगा और 'अकार' पुनः आ जायेगा । उसी 'अकार' का पूर्व की तरह फिर से 'अस्य उयां लुक्' २/४/८६ से ‘लुक्' न हो जाय इसलिए 'ङी लुक्' के स्थानिवद्भाव का निषेध किया है । इस प्रकार सब सार्थक है।
यदि यह न्याय न होता तो 'अकार' फिर से आता ही नहीं, तो उसके अभाव में स्थानिवद्भाव का निषेध ही न किया होता, तथापि स्थानिवद्भाव का निषेध किया वह इस न्याय का ज्ञापक है।
यह न्याय अनित्य है अतः 'मुनीनाम्' इत्यादि रूप में 'दीर्घोनाम्यतिसृ' १/४/४७ से दीर्घ
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