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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. २७)
८१ अदर्शनवाचक होने से, 'अदर्शन' भी आदेश ही कहा जाता है क्योंकि अदर्शन' आदेश के यौगिक अर्थ के साथ अनुकूल है, अतः उसका स्थानिवत्त्व भी होगा ही । अतः 'इत्' संज्ञावाले का स्थानिवद्भाव नहीं होता है, ऐसा मानना उचित नहीं है, ऐसा न्यासकार का मत है । इस प्रकार सूत्रकार श्रीहेमचन्द्राचार्यजी और लघुन्यासकार के मत भिन्न भिन्न नहीं हैं ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी का कहना है । यह न्याय व्याडि के परिभाषासूचन, शाकटायन, चान्द्र, कातन्त्र और कालाप परिभाषासंग्रह में बताया नहीं है।
॥२७॥ नजुक्तं तत्सदृशे ॥ 'नञ्' द्वारा कथित पद से, उसके जैसा ही अन्य पद का ग्रहण करना ।
'नञ्' द्वारा कथित पद, उसके जैसे अन्य विशेष्यभूत पद में विश्राम लेता है । अर्थात् जिस पद का 'न' के योग से निषेध किया गया हो, उसके जैसे ही अन्य पद का ग्रहण करना, किन्तु सर्वथा भिन्न (असदृश) का ग्रहण नहीं करना ।
उदा. 'य्यक्ये' १/२/२५ में 'यि अक्ये' है । यहाँ 'नञ्' द्वारा उक्त पद 'क्य' है । 'क्य' जैसे ही यकारादि प्रत्ययो का नियमन करने से 'गां इच्छति, नावं इच्छति' मे 'क्यन्' पर में होने पर अव्'
और 'आव' आदेश होगा और 'गव्यति, नाव्यति' इत्यादि रूप सिद्ध होंगे, किन्तु 'गोयानं, नौयानं' इत्यादि प्रयोग में नहीं होगा क्योंकि वहाँ 'यान', प्रत्यय नहीं है किन्तु शब्द ही है ।
संक्षेप में 'य्यक्ये' १/२/२५ में जो ‘क्य' का निषेध किया है, वह 'क्य: शिति' ३/४/ ७० से भाव और कर्म में होनेवाले 'क्य' का निषेध किया है, किन्तु इससे प्रत्येक 'क्य' का निषेध न होकर, उसके जैसे- 'क्यन्, क्यङ्, क्य' का इस न्याय द्वारा ग्रहण होता है, किन्तु अन्य यकारादि प्रत्यय का ग्रहण नहीं होता है ।
इस न्याय का ज्ञापक पूर्व की तरह समझ लेना अर्थात् 'य्यक्ये' १/२/२५ में 'यि' और 'अक्ये' दोनों विशेषण बनते हैं, किन्तु विशेष्य सूत्र में बताया नहीं है। अतः यहाँ इस न्याय से विशेष्य के रूप में 'प्रत्यये ‘पद उपस्थित होता है । वहीं, 'प्रत्यये' पद का सूत्र में अग्रहण ही इस न्याय का ज्ञापक है।
यह न्याय अनित्य होने से 'पर्युदास नञ्' में ही इसकी प्रवृत्ति होती है, किन्तु 'प्रसज्य नञ्' में नहीं होती है। कहा गया है कि "पर्युदासः सदृग्ग्राही, प्रसज्यस्तु निषेधकृत् ।” “पर्युदास नञ्' में सदृश का ग्रहण होता है, जबकि 'प्रसज्य नञ्' में सर्वथा निषेध होता है, अतः ‘अनतो लुप्' १/ ४/५९ सूत्र में प्रसज्य नञ्' होने से अकार, 'नञ्' द्वारा कहा गया है तथापि, अकार सदृश केवल अन्य स्वरों का ग्रहण नहीं होता है किन्तु अकार भिन्न सब स्वरों और व्यञ्जनों का भी ग्रहण होता है । अतः ‘पयः, मनः' इत्यादि शब्द व्यञ्जनान्त होने पर भी 'सि' और 'अम्' प्रत्यय का लोप होता है । इस प्रकार यह न्याय 'निषेधमात्रपर्यवसायिनः' अर्थात् केवल निषेध करनेवाले 'प्रसज्य नञ्' के लिए प्रतिकूल है।
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