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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) ५/१/९६ तक के प्रकरण को बताया और ज्ञापक के रूप में इसी प्रकरण को 'लिहादि प्रपञ्च प्रकरण' कहा, इसके बारे में कुछेक को अरुचि/नाराजगी है। यहां 'लिहादि' आकृति गण है, अतः तत्सदृश
य धातओं का इसमें समावेश हो जाता है तथा 'कर्म' उपपद में होने पर उससे ही 'अच' प्रत्यय हो सकता है, किन्तु 'लिह' आदि धातु परिगणित नहीं हैं, अतः उनकी मान्यतानुसार 'लिहादि' से अलग करने के लिए सूत्रारम्भ किया है या 'लिहादिभ्यः' ५/१/५० से जिसको ‘अच्' प्रत्यय नहीं होता है, इसका ही यहाँ कथन मानना चाहिए अर्थात् 'अर्होऽच् ५/१/९१ आदि सूत्र, 'लिहादिभ्यः' ५/१/५० से अप्राप्त अंश की ही पूर्ति करता है । यदि उसी सूत्र से 'अहं' को 'अच्' प्राप्त होता, तो 'अर्होऽच्' ५/१/९१ इत्यादि सूत्र की कोई आवश्यकता नहीं थी । अतः 'लिहादि' पाठ में इन धातुओं के नियमत्व की कोई संभावना नहीं है, केवल ‘लिहादिप्रपञ्चार्थत्व' बताने से प्रस्तुत न्याय के अनित्यत्व की कल्पना नहीं हो सकती है, ऐसी कुछेक की मान्यता है।
॥२६॥ धातोः स्वरूपग्रहणे तत्प्रत्यये कार्यविज्ञानम् ॥ जो कार्य, धातु के स्वरूप का उच्चार करके, किसी प्रत्यय के पर में आने के बाद, करने को कहा हो, वह कार्य, उसी धातु से, अव्यवहित पर में उक्त प्रत्यय आने पर ही होता है, अन्यथा वह कार्य नहीं होता है ।
'सर्व वाक्यं सावधारणम्' न्याय से, जिस धातु से उसी धातु-सम्बन्धित विवक्षित प्रत्यय पर में आने पर ही, वही कार्य होता है, किन्तु वही प्रत्यय 'नाम' से आया हो तो, वह कार्य नहीं होता है।
जिस धातु से, उसी धातु-सम्बन्धित जो प्रत्यय पर में आने पर कार्य होता है, उसी धातु से 'क्विप्' प्रत्यय होकर 'नाम' होगा तब, नामावस्था में भी, वही प्रत्यय आने पर, उक्त कार्य की प्राप्ति होती है क्योंकि 'क्विप्' प्रत्ययान्त धातु अपने धातुत्व का त्याग नहीं करते हैं और शब्दत्व को ग्रहण करते हैं । इस परिस्थिति में, 'क्विप्' प्रत्ययान्त शब्द भी धातु कहा जाता है, अतः आख्यात या अन्य भी धातु-सम्बन्धित प्रत्यय पर में आने पर, उक्त कार्य की प्राप्ति होती है । इसका निषेध करने के लिए यह न्याय है।
उदा. 'दुष्यन्तं प्रयुङ्क्ते दूषयति' और 'दोषणं दुट् क्विप् तां करोति' में 'णिज् बहुलम्'- ३/ ४/४२ सूत्र से ‘णिच्' होने पर 'दुषयति' होगा ।
प्रथम प्रयोग में 'दुष' धातु से अव्यवहित ‘णिग्' प्रत्यय आया है अतः वहाँ 'ऊद् दुषो णौ' ४/२/४० से 'उ' का 'ऊ' होगा, किन्तु दूसरे प्रयोग में 'दुष' धातु से 'क्विप्' हुआ है, उसका (क्विप का) सर्वापहार संपूर्ण लोप हुआ है । उससे जब ‘णिज् बहुलं-' ३/४/४२ से 'णिच्' होगा तब वही 'णिच्', 'क्विबन्ता धातुत्वं नोज्झन्ति....' न्याय से, 'दुष्' में 'नामत्व' और 'धातुत्व' दोनों होने से, धातु से विहित और नाम से भी विहित माना जायेगा । अतः 'ऊद् दुषो णौ' ४/२/४० से 'ऊ' होने की प्राप्ति है, किन्तु प्रस्तुत न्याय के कारण नहीं होगा क्योंकि जिस 'दुष्' धातु-सम्बन्धित ‘णि' पर
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