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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. २३)
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तो गौण और मुख्य दोनों के स्थान में एक ही कार्य होता है अतः गौण में कार्य का अभाव करना संभव ही नहीं है। तथा 'समानादमोऽतः' १/४/४६ से अनुवृत्त 'समान' शब्द का विभक्तिविपरिणाम होकर 'दी? नाम्यतिसृ चतसृतः' १/४/४७ में 'समानस्य' होता है, इसकी अनुवृत्ति 'शसोऽता' १/ ४/४९ में आती है, अतः 'समान' स्वर ही, षष्ठी से निर्दिष्ट होने से, स्थानि के रूप में लिया जायेगा
और इसका आसन्न आदेश ही 'आसन्न ७/४/१२० परिभाषा से होगा । अत: 'आसन्नः' ७/४/ १२० परिभाषा द्वारा ही निर्णय करना उचित है ।
जहाँ प्रस्तुत नियम में सन्देह हो, वहाँ ही लोकसिद्ध 'प्रधानानुयायिनो व्यवहाराः' न्याय का प्रयोग करना चाहिए । किन्तु यहाँ ऐसी कोई जरूरत नहीं है तथा 'प्रधानानुयाय्यप्रधानम्' न्याय भी इसी न्याय का अन्य रूप है, और वह इस न्याय से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं है।
प्रस्तुत न्याय के कार्यक्षेत्र की समझ देते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि परिनिष्ठित पदों के बीच ही गौण-मुख्य सम्बन्ध संभव है, अतः 'नाम' अवस्था में, इस न्याय का प्रयोग होता नहीं है । इस बात को शास्त्रीय पद्धति से प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं कि “किञ्चायं न्यायो न नामसम्बन्धिनि कार्ये प्रवर्तते, किन्तूपात्तं विशिष्टार्थोपस्थापकं विशिष्टरूपं यत्र तादृश-पदकार्य एव प्रवर्तते ।"
यहाँ 'पदविधि' का क्षेत्र बहुत विशाल होने से, प्रस्तुत न्याय की प्रवृत्ति के लिए 'पदविधि' का क्षेत्र भी निश्चित करने की जरूरत खड़ी होती है। इस विषय में महाभाष्य की चर्चा के आधार पर, उन्होंने प्रस्थापित किया है कि, 'विभक्ति अनिमित्तक' और 'स्त्रीत्व अनिमित्तक' पदकार्य में इस न्याय की प्रवृत्ति होती है। इसके बारे में विस्तृत चर्चा श्रीलावण्यसूरिजीकृत 'न्यायार्थसिन्धु' व 'तरङ्ग' में प्राप्त होती है।
भावमिश्रकृत कातन्त्र परिभाषावृत्ति' में, 'सः, तौ, ते' और 'अतितत्' प्रयोग इस न्याय के उदाहरण के स्वरूप में दिये हैं । 'सः, तौ, ते' प्रयोग में 'तद्' शब्द मुख्य होने से, उससे 'त्यदादि' सम्बन्धित सर्व कार्य हुआ है किन्तु 'अतितद्' में वही 'तद्' शब्द गौण होने से 'त्यदादि' सम्बन्धित कार्य नहीं हुआ है।
॥२३॥ कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे ॥ कृत्रिम और अकृत्रिम, दोनों का ग्रहण सम्भव हो तो कृत्रिम अर्थात् परिभाषानिष्पन्न का ग्रहण करना चाहिए।
यहाँ कार्यसम्प्रत्ययः' शब्द रखना/जोड़ना ।
'कृत्रिम' अर्थात् 'परिभाषानिष्पन्न', वह 'उपाधि' से युक्त होने से 'गौण' होता है । जबकि उससे भिन्न अन्य अकृत्रिम अर्थात् स्वभाविक और लोकप्रसिद्ध, वह उपाधि से रहित होने से मुख्य माना जाता है।
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