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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ११) कोई आवश्यकता नहीं है तथापि इसी सूत्र की रचना की गई, इससे सूचित होता है कि 'सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः' न्याय से नियम किया गया है अर्थात् अन्यत्र, 'कर्म' को 'अकर्म' संज्ञा नहीं होती है, ऐसा 'स्मृत्यर्थदयेशः' २/२/११ सूत्र द्वारा परोक्ष सूचन होता है । यदि यह न्याय न होता तो प्रस्तुत सूत्र नियमार्थ होने के स्थान में (नियमसूत्र के स्थान में), केवल विधिसूत्र ही बना रहता अर्थात् 'स्मृत्यर्थदयेशः' २/२/११ सूत्र में जो नियमार्थत्व है, वह इस न्याय के बिना 'अनुपपद्यमान' है । ‘स्मृत्यर्थदयेशः' २/२/११ सूत्र में कथित नियम इस प्रकार है -: 'स्मृत्यर्थदयेशः' २/२/११ सूत्र में निर्दिष्ट धातुओं के 'कर्म' को पक्ष में 'अकर्मत्व' के विधान से, 'शेष' रूप में उसकी विवक्षा होती है, किन्तु अन्य कारक के रूप में विवक्षा होती नहीं है, तथा कर्म से भिन्न कारक की भी अन्य कारक के रूप में विवक्षा नहीं होती है, अतः 'मात्रा स्मृतं, मनसा स्मृतं' आदि प्रयोग में 'कर्ता' और 'करण' रूप कारक की ‘शेष' में विवक्षा न करने से 'षष्ठी' विभक्ति नहीं होती है ।
यह न्याय अनित्य है, अतः 'सम्बन्ध' में कोई भी कारक होगा ही नहीं । अत एव 'बहूनां इदं वस्त्रम्' वाक्य में बहु शब्द से ‘बह्वल्पार्थात्कारकादिष्टानिष्टे शस्' ७/२/१५० सूत्र से 'एशस्' प्रत्यय नहीं होगा।
इस न्याय का पाणिनीय परम्परा में, परिभाषा/न्याय के रूप में कहीं भी निर्देश नहीं किया गया है किन्तु भाष्यकार आदि के व्यवहार से यह न्याय स्वतः सिद्ध है, ऐसा दिखाई पड़ता है और सर्वत्र इस प्रकार का व्यवहार दिखायी पडता है। भाष्यकार पतंजलि ने 'कारके' [ पा.सू.१/४/२३ ] सूत्र के भाष्य में स्पष्टरूप से सूचित किया है कि कारक वक्ता की इच्छा अर्थात् विवक्षा के अधीन ही होते हैं।
यह न्याय चान्द्र, भोज, और सिद्धहेम के अलावा अन्य किसी भी परिभाषा पाठ में उपलब्ध नहीं है।
कैयट ने 'कारक' की समीक्षा करते हुए कहा है कि सर्व 'कारक' में लक्ष्य के अनुसार साध्यत्व द्वारा एक साधारण/सामान्य क्रिया होती है, अत: वही सामान्य साधारण क्रिया के कारण से प्रत्येक कारक में कर्तृत्व होता है, किन्तु उन सब को 'अवान्तर व्यापार' के कारण से, उसी, व्यापार की विवक्षा करने पर करणत्व, सम्प्रदानत्व, अपादानत्व' आदि का व्यवहार होता है। उदा. पुत्र को जन्म देने में माता और पिता दोनों कर्ता होने पर भी माता के बारे में-'अयमस्यां जनयति' और पिता के बारे में 'अयमस्माज्जनयति' इस प्रकार व्यवहार होता है । इस प्रकार माता में अधिकरणत्व' की और पिता में 'अपादानत्व' की व्यवस्था होती है।
इस प्रकार महाभाष्य और कैयट के ग्रंथो में कारक का विवक्षाधीनत्व प्रतिपादित किया होने से पाणिनीय परम्परा में यह सिद्धान्त न्याय/परिभाषा के स्वरूप में पठित नहीं है।।
श्रीहेमहंसगणि ने इस न्याय की अनित्यता बताते हुए कहा है कि यह न्याय अनित्य होने से 'बहूनामिदं वस्त्रम्' प्रयोग में 'कारकत्व' की विवक्षा का अभाव है क्योंकि 'सम्बन्ध' को कदापि कारकत्व प्राप्त नहीं होता है, अत: 'बहु' शब्द से 'बह्वल्पार्थात्कारकादिष्टानिष्टे शस्' ७/२/१५० से 'एशस्' प्रत्यय नहीं होता है।
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