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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'शव्' से निर्दिष्ट -: 'निसस्तपेनासेवायाम्' २/३/३५ सूत्र से 'निस्' के 'स्' का 'ए' होता है । यही 'षत्व' 'निष्टपति' में होता है किन्तु 'यङ्लुबन्त' 'तप्' धातु सम्बन्धित 'निस्' के 'स्' का 'ए' नहीं होगा । उदा. निस्तातपीति ।
अनुबन्धानेर्दिष्ट-: 'गापास्थासादामाहाकः' ४/३/९६ में हाक् धातु अनुबन्ध से निर्दिष्ट है, अतः इसी सूत्र से होनेवाला 'एत्व' 'यङ्लुबन्त' 'हा' धातु का नहीं होगा । उदा. हेयात्, जहायात् । यहाँ 'हेयात्' ‘में मूल 'हा' धातु है, जबकि 'जहायात्' में 'यङ्लुबन्त' 'हा' धातु है । अतः इस न्याय से 'एत्व' नहीं हुआ है।
गणनिर्दिष्ट कार्य तीन प्रकार का है । १. सङ्ख्या से निर्दिष्ट २. 'आदि' शब्द से निर्दिष्ट ३. बहुवचन से निर्दिष्ट ।
१. 'सङ्ख्या ' से निर्दिष्ट-: 'रुत्पञ्चकाच्छिदयः' ४/४/८८ से होनेवाला 'इट' जैसे 'स्वपिति' में होता है, वैसे 'सोषोप्ति' में नहीं होगा, क्योंकि 'सोषोप्ति' में 'स्वप्' धातु 'यङ्लुबन्त' है ।
२. 'आदि' शब्द से निर्दिष्ट-: 'लुदिधुतादिपुष्यादेः परस्मै' ३/४/६४ से होनेवाला 'अङ्', 'अद्युतत्' में होता है किन्तु 'अदेद्योतीद' में नहीं होगा क्योंकि अदेद्योतीद्' में 'द्युत्' 'यङ्लुबन्त' है।
३. 'बहुवचन' से निर्दिष्ट-: 'तेर्ग्रहादिभ्यः' ४/४/३३ से 'ग्रह' आदि धातु के पर में आये हुए अशित् 'ति' प्रत्यय की आदि में 'इट' होता है अत: 'भणिति' में 'ति' प्रत्यय के आदि में 'इट' होगा किन्तु 'यङ्लुबन्त'- 'बम्भाण्टि' में 'इट्' नहीं होगा क्योंकि वह बहुवचन निर्दिष्ट' गणकार्य है।
'एकस्वरनिमित्तक' कार्य-: जैसे 'शक्त' में 'एकस्वरादनुस्वारेतः'- ४/४/५६ से 'इट' का निषेध होता है वैसे 'यङ्लुबन्त शक्' धातु से 'शाशकितः' इत्यादि प्रयोग में 'इट' का निषेध नहीं होगा क्योंकि वह 'एकस्वरनिमित्तक' कार्य है।
वस्तुतः 'शाशकितः' इत्यादि प्रयोग में 'एकस्वरत्व' का अभाव है। अतः 'एकस्वरादनुस्वारेतः' ४/४/५६ सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होगी किन्तु 'शक्' धातु एकस्वरयुक्त होने से 'प्रकृतिग्रहणे यङ्लुबन्तस्यापि'-न्याय से 'शाशकि' भी एकस्वरयुक्त माना जायेगा। अत: यहाँ भी 'एकस्वरादनुस्वारेतः' ४/४/५६ से इट् निषेध की प्राप्ति है किन्तु, इसी न्याय से निषेध होने से 'इट्' निषेध नहीं होगा।
इन्हीं सूत्रों में 'तिव्, शव्, 'इत्यादि द्वारा किये गये निर्देश ही इस न्याय के ज्ञापक हैं क्योंकि इस प्रकार तिवादि' से किये गये निर्देशों का अन्य कोई उपयोग नहीं है । केवल 'यङ्लुबन्त' प्रयोग में वे ही सूत्रोक्त कार्य होते नहीं हैं । अतः अर्थापत्ति से ऐसा मालूम देता है कि इस प्रकार के निर्देश, केवल इस न्याय के अस्तित्व को मानकर ही किये गये हैं ।
इस न्याय के पहले और पाँचवें अंश में अर्थात् 'तिव्' निर्दिष्ट कार्य और 'एकस्वरनिमित्तक' कार्य में अनित्यता नहीं है किन्तु 'शव' निर्दिष्ट 'अनुबन्ध' निर्दिष्ट और 'गण' निर्दिष्ट कार्य में अनित्यता है अर्थात् उनके द्वारा निर्दिष्ट कार्य कहीं-कहीं 'यङ्लुबन्त' को भी होता है । उदा. 'शव्' से निर्दिष्ट : जैसे 'अपात्' में 'पिबैतिदाभूस्थ:-' ४/३/६६ से 'शव्' निर्दिष्ट 'सिच्' का लोप हुआ है वैसे
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