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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १८)
५५ 'यङ्लुबन्त' 'पा' धातु से भी उसी सूत्र से ही 'सिच्' का लोप होगा और 'अपापात्' रूप होगा।
२. अनुबन्ध निर्दिष्ट - जैसे 'नृत्तः' में 'डीयश्व्यैदितः क्तयोः' ४/४/६१ से 'इट्' का निषेध हुआ है क्योंकि 'नृत्' धातु 'ऐदित्' है, अतः 'इट्' निषेध-अनुबन्ध निर्दिष्ट है, वैसे यङ्लुबन्त 'नृत्' धातु को भी 'इट्' निषेध होगा और 'नरीनृत्तः' रूप सिद्ध होगा।
३. गणनिर्दिष्ट -: 'स्पृश्' धातु से 'स्प्रष्टा' रूप करते समय 'स्पृशादिसृपो वा' ४/४/११२ से जैसे 'अ' का आगम होता है वैसे 'यङ्लुबन्त स्पृश्"धातु से 'ति' प्रत्यय होने पर, उसी सूत्र से 'अ' का आगम होगा और पस्पष्टि' रूप होगा।
इस प्रकार 'शव' निर्दिष्ट, 'अनुबन्ध' निर्दिष्ट, 'गण निर्दिष्ट' कार्य यङ्लुबन्त से नहीं होता है, न्याय की अनित्यता बतायी अर्थात् कहीं-कहीं ये तीनों कार्य 'यङ्लुबन्त' से भी होते हैं ।
'न्यायसंग्रह' में 'तेहादिभ्यः' ४/४/३३ को 'बहुवचननिर्दिष्ट गण' का बताया गया है। श्रीलावण्यसूरिजी इस उदाहरण को 'आदि-शब्द से निर्दिष्ट गण' का कहते हैं । वस्तुत: 'आदि' शब्द से दो प्रकार के गण का सूचन होता है । १. आकृति गण २. सामान्य गण । १. प्रथम आकृति गण में कुछेक उदाहरण स्वरूप प्रयोग/शब्द बताये जाते हैं। उसके समान अन्य प्रयोग/शब्द जो शिष्ट साहित्य में पाये जाते हो उनका समावेश इसी आकृति गण में करना होता है । अतः केवल एकवचन में 'आदि' शब्द को रखने से, वह आकृति गण है या नहीं इसकी कोई स्पष्टता नहीं होती है, अतः सिद्धहेम की परम्परा में जहाँ जहाँ 'आकृति गण' का निर्देश है वहाँ वहाँ 'आदि' शब्द को बहुवचन में रखा है और सूत्रकार आचार्यश्री ने वृत्ति में स्पष्ट रूप से बताया है कि 'बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।' 'उदा. 'नोादिभ्यः' २/१/९९, 'गौरादिभ्यो मुख्यान्डी:' २/४/१९, — 'आयुधादिभ्यो' धृगोऽदण्डादेः' ५/१/९४.
___ जबकि दूसरे प्रकार में किसी भी गण के शब्द या धातु, परिमित संख्या में या परिगणित शब्द हो वहाँ 'आदि' शब्द को एकवचन में रखा है। उदा. 'नवा शोणादेः' २/४/३१ 'अजादेः' २/४/१६, 'स्पृशादिसृपो वा' ४/४/११२, 'सर्वादेः-' १/४/७, 'आयुधादिभ्यो धृगोऽदण्डादेः' ५/१/९४ ।
अतः श्रीहेमहंसगणि ने बताया हुआ 'बहुवचननिर्दिष्ट गण' का उदाहरण 'तेर्ग्रहादिभ्यः' ४/ ४/३३ 'आदि' शब्द से निर्दिष्ट गण का उदाहरण बन सकता है तथापि उसमें बहुवचन निष्कारण रखा नहीं है, उसका ज्ञापन करने के लिए तथा आकृति गण में बहुवचन से निर्देश होता है और वह सामान्य गण से भिन्न प्रकार का है, वह बताने के लिए है। अतः उसे बहुवचननिर्दिष्ट गण के उदाहरण के रूप में रखा वह सही/योग्य ही है।
यहाँ तीसरे अंश 'अनुबन्ध' निर्दिष्ट कार्य की अनित्यता का फल बताया कि 'डीयश्व्यैदितः क्तयोः' ४/४/६१ से जैसे 'नृत्तः' में 'इट्' का निषेध हुआ है वैसे 'नरीनृत्तः ‘में भी 'इट' का निषेध हुआ है किन्तु वह सही मालूम नहीं देता है । इसके बारे में श्रीलावण्यसूरिजी का मानना है कि यहाँ
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