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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. २०) है, उससे दोनों न्यायों के स्वतन्त्र अस्तित्व का बोध होता है ।
और सिद्धहेमबृहद्वृति में जहाँ जहाँ 'असिद्धं बहिरङ्ग-' न्याय का उपयोग किया है वहाँ दो कार्यो की समकालप्राप्ति के उदाहरण है ही नहीं, किन्तु पहले किये गए बहिरङ्ग कार्य के कारण प्राप्त नये अन्तरङ्ग कार्य का जिनमें निषेध होता है, वैसे उदाहरण मिलते हैं। उदा. (१) अतिक्रोष्टा, प्रियक्रोष्टा......१/४/९१
(२) कुर्वन्नास्ते, कृषन्नास्ते......१/३/२७
(३) नार्पत्यः, नार्कुटः, तवर्कारः ......१/३/५३ श्रीलावण्यसूरिजी ने 'विशेषापेक्षात् सामान्यापेक्षमन्तरङ, विशेषापेक्षे विशेष धर्मस्याधिकस्य निमित्तत्वात्' कहकर, अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग की व्याख्या, अन्य किसी के मतानुसार दी है, किन्तु यह मत किसका है वह स्पष्टतया बताया नहीं है और 'न्यायसङ्ग्रह' की 'बृहद्वृत्ति' या 'न्यास' में इसके बारे में कोई उल्लेख नहीं है । शायद लघुन्यासकार का यह मत हो सकता है । इसकी चर्चा करते हुए उन्हों ने बताया है कि विशेष में सामान्य धर्म और विशेष धर्म दोनों होते हैं जबकि सामान्य में केवल सामान्य धर्म ही रहता है। अतः विशेष को बहिरङ्ग और सामान्य को अन्तरङ्ग कहा जाता है। किन्तु इस बात को अस्वीकार करते हुए वे कहते हैं कि यद्यपि विशेष के व्याप्यत्व द्वारा व्यापक रूप सामान्य की उपस्थिति अनुमान द्वारा होती है, तथापि उसी सामान्य का निमित्त विशेष में होता है, ऐसा मानने में कोई प्रमाण नहीं है, अतः विशेष में अधिकधर्मनिमित्तकत्व संगत नहीं होता है और भाष्य में भी इस प्रकार के अन्तरङ्गत्व और बहिरङ्गत्व का कहीं भी उल्लेख नहीं हुआ है।
पूर्वोपस्थितिनिमित्त के बलवत्त्व का बोधक यह न्याय लोक से भी सिद्ध है, ऐसा महाभाष्य में बताया गया है । 'अचः परस्मिन् पूर्वविधौ' [पा. सू. १/१/५७] के भाष्य में कहा है कि यह परिभाषा/न्याय लोकसिद्ध है । किस तरह ? लोक प्रत्यङ्गवर्ती' होते हैं अर्थात् कोई भी मनुष्य सुबह उठकर अपने शरीर सम्बन्धित सर्व कार्य करता है, क्योंकि वह शरीर सकल भोग का साधन है। बाद में सुहृद् अर्थात् स्वजन और उसके बाद अन्य सम्बन्धी के कार्य करता है। उसी प्रकार यहाँ शब्दशास्त्र में भी जिस क्रम से अर्थों का सामीप्य होता है, उसी क्रम से शब्दों की उपस्थिति होती है । (यही बात शब्दप्रयोक्ता के लिए है।) जबकि सुननेवालों के लिए प्रथम शब्दोपस्थिति होती है, बाद में उसके अनुसार अर्थोपस्थिति होती है।
जिस तरह लिङ्ग, सङ्ख्या, कारक इत्यादि से युक्त शब्दों का बाह्य अर्थ के साथ योग होगा और उसी तरह से बाह्यार्थवाचक शब्द का सम्बन्ध भी अनुक्रम से होगा । संक्षेप में शब्द में पदत्व लाने के लिए आवश्यक व्याकरण की प्रक्रिया प्रथम हो जायेगी और उसी शब्द सम्बन्धित संख्या, कारक आदि शुरू से ही आयेंगे, किन्तु वाक्य में उसका प्रयोग करते समय एक शब्द का दूसरे शब्दों के साथ सम्बन्ध होगा और उसी समय सन्धि, समास इत्यादि अनेक कार्य होंगे । इन १. यहाँ 'प्रत्यङ्ग' शब्द का अर्थ प्रत्यासन्नवाची है ।
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