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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) 'अनुबन्ध निर्देशत्व' ही नहीं है । वस्तुतः 'गापास्थासादामाहाकः ' ४/३/९६ में 'हाक्' धातु 'अनुबन्ध' से निर्दिष्ट कहा जाता है क्योंकि स्वरूप से ही वह 'अनुबन्धनिर्दिष्ट' है, जबकि 'डीयश्व्यैदितः ' ४/६१ में उपसर्जन रूप, 'अनुबन्ध' का ग्रहण किया है किन्तु 'स्वरूपानुबन्ध' का यहाँ नितान्त अभाव ही है । अत: ' यङ्लुबन्त' में इसी सूत्र की प्रवृत्ति को कोई बाध नहीं आता है और इस प्रकार के 'अनुबन्धनिर्दिष्टत्व' का स्वीकार करने पर 'एकस्वरादनुस्वारेत: ' ४/४/५६ में भी ' अनुबन्धनिर्दिष्टत्व' आयेगा और 'एकस्वरनिमित्तक' के सभी उदाहरण इसी न्यायांश के भी होंगे ।
'डीयश्व्यैदितः' ४/४/६१ सूत्र की वृत्ति में 'नृत्' इत्यादि धातुओं के 'ऐकार' अनुबन्ध का फल बताते हुए कहा है कि 'यङ्लुबन्त' में इट् का निषेध करने के लिए 'ऐ' अनुबन्ध है क्योंकि केवल 'नृत्त:' इत्यादि प्रयोग में 'वेटोऽपतः ' ४/४ / ६२ सूत्र से ही 'इट् निषेध' सिद्ध ही है, अतः 'अनुबन्ध' अचरितार्थ होगा । इसलिए समुदायरूप ' यङ्लुबन्त' में 'इट्' की व्यावृत्ति करने के लिए 'ऐ' अनुबन्ध है । इससे "केवलेऽचरितार्था अनुबन्धाः समुदायस्योपकारका भवन्ति" न्याय का यह उदाहरण है, ऐसा मानना चाहिए ।
केवल इससे ही 'अनुबन्धनिर्देशनिमित्तक' ऐसा 'यङ्लुप्' प्रवृत्तिनिषेध अनित्य बनता नहीं है । क्योंकि ' अनुबन्धकरण' सामर्थ्य से ही इसका बाध होता है । यह एक कल्पना है और 'डीयश्व्यैदित:' - ४/४/६१ में ' अनुबन्धनिर्देशत्व' ही नहीं है ऐसा ऊपर बताया है, अतः “आचार्यश्री ने 'नरीनृत्त:' आदि उदाहरण में 'इट्-निषेध' के अभाव के लिए अन्य कोई उपाय नहीं किया है, अतः 'अनुबन्धनिर्देश' के सामर्थ्य का आश्रय / आधार लेना पड़ता है और इस प्रकार इस न्याय के 'अनुबन्धनिर्दिष्ट' अंश में अनित्यत्व आता है । यदि आचार्यश्री ने इस न्याय को नित्य माना होता तो 'अनुबन्धनिर्देश' के सामर्थ्य का आश्रय न लिया होता। " यही प्राचीन विचारधारा आधारहीन मालूम देती है ।
प्राचीन मत की कमी बताते हुए श्रीलावण्यसूरिजी 'अनुबन्ध निर्देशत्व' के दोनों प्रकारों का उल्लेख करते हैं । कदाचित् मुख्य स्वरूप से अनुबन्ध का निर्देश होता है, तो कदाचित् / क्वचित् गौण रूप से अनुबन्धनिर्देश होता है । प्रस्तुत न्याय में मुख्य रूप से किये गये 'अनुबन्धनिर्देश' का ही ग्रहण होना चाहिए । इसका प्रत्युत्तर देते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि "डीयश्व्यैदितः क्तयोः ४/ ४/६१ में ‘ऐदित्' ऐसे स्वरूप से ही अनुबन्धनिर्देश हुआ है, अतः यहाँ इसका ही ग्रहण होगा किन्तु एकस्वरादनुस्वारेत: ४/४ / ५६ में जो अनुबन्धनिर्देश है, उसका ग्रहण नहीं होगा । प्राचीन मत के इसी तर्क का भी उन्हों ने सयुक्तिक खण्डन किया है, इसके लिए उन्हों ने 'नरीनृत्त:' जैसे यङ्लुबन्त के उदाहरण लिये हैं ।
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'नरीनृत्त: ' में 'इट्' का निषेध किससे होता है, यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । यहाँ 'वेटोऽपतः ' ४/४/६२ की प्राप्ति नहीं होने से 'डीयश्व्यैदितः क्तयोः ४/४/६१ में 'ऐदित्करण' के सामर्थ्य से 'इट्' का निषेध सिद्ध होता है। अब यहाँ 'एकस्वराद्' की अनुवृत्ति को स्वीकार करना पड़ता है I
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