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प्रथम वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. १३ )
द्वितीयात्' या 'प्रथमद्वितीयाभ्याम्' के रूप में 'विभक्तिविपरिणाम' हुआ है ।
इन सूत्रों में 'विभक्तिविपरिणाम' सूत्रकार ने स्वयं किया है, अतः वे सूत्र इस न्याय की अनित्यता के ज्ञापक के रूप में सिद्ध नहीं होते हैं। यदि इन सूत्रों को ज्ञापक मानें तो, सूत्रकार के स्वयं किये हुए प्रयत्न व्यर्थ होंगे किन्तु 'भाष्यकार' ने कहा है कि 'नासूया तत्र कर्तव्या यत्राऽनुगमः क्रियते । '
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अतः 'तृतीयस्य पञ्चमे' १ / ३ / १ सूत्रगत 'तृतीयस्य' का, इस न्याय से 'पञ्चम्यन्त' के रूप में विपरिणाम होकर 'तृतीयात्' होने की प्राप्ति है, तथापि 'ततो हश्चतुर्थः ' १ / ३ / ३ सूत्र में 'ततः ' पद रखा है वह असंगत नहीं है और 'तत:' इस प्रकार के निर्देश से, इस न्याय के अनित्यत्व की आशंका नहीं करनी चाहिए। ऐसा आ. श्रीलावण्यसूरिजी का मानना है ।
और आ. श्रीलावण्यसूरिजी ने एक सिद्धांत ऐसा प्रस्थापित किया है कि ज्ञापकसिद्ध न्याय, सूत्र के अक्षर या शब्द या पूर्ण सूत्र को व्यर्थ बनाने में अर्थात् उसकी व्यर्थता प्रतिपादित करने में समर्थ नहीं बन पाता है, अतः ऐसे स्थानों पर 'ज्ञापकसिद्धं न सर्वत्र' अथवा 'ज्ञापकनिर्दिष्टमनित्यम्' न्याय का आधार लेना चाहिए या आश्रय करना चाहिए
किन्तु उनका यह सिद्धान्त सही नहीं है क्योंकि उन्होंने पूर्व के 'भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः ' न्याय की अनित्यता के ज्ञापक सूत्र 'सङ्ख्यानां र्णाम्' १/४ / ३३ सूत्रगत, सूत्रकार के 'र्णाम् ' प्रयोग के बहुवचन को व्यर्थ बताया ही है । वहाँ उन्हों ने कहा है 'ष्णम्' बहुवचन व्यर्थ होकर ज्ञापन करता है और यह बहुवचन सूत्रकार द्वारा ही प्रयुक्त है। अतः उनके द्वारा प्रस्थापित सिद्धांत का यहाँ विरोध आता है ।
श्रीलावण्यसूरिजी मानते हैं कि यह न्याय लोकसिद्ध ही है, अत एव पाणिनीय परम्परा के 'परिभाषेन्दुशेखर' में यह न्याय नहीं बताया गया है । यद्यपि 'परिभाषासंग्रह' के अनुसार, १७ परिभाषा संग्रह में से पाणिनीय परम्परा के केवल चार परिभाषासंग्रह (१ पुरुषोत्तमदेवकृत परिभाषा पाठ, २. नीलकण्ठदीक्षितकृत परिभाषावृत्ति, ३ नागेशकृत परिभाषेन्दुशेखर, ४ शेषाद्रिनाथकृत परिभाषावृत्ति ) में इस न्याय का उल्लेख नहीं हुआ है। इसके सिवा, यही न्याय परिभाषा के क्षेत्र में सबसे प्राचीन माने गये व्याडि के 'परिभाषासूचन' में भी पाया जाता है ।
पाणिनीय परम्परा में इस न्याय का लोकसिद्धत्व इस प्रकार बताया है । उदा. 'सर्वे छात्रा गमिष्यन्ति, अध्यापकश्च, अहं च ।' यहाँ 'गमिष्यन्ति' पद 'छात्रा: ' कर्ता आधार पर रखा गया है, तथापि, 'अध्यापकश्च' कहते समय उसका 'गमिष्यति' के रूप में वचन का विपरिणाम ही जाता है और इस प्रकार 'अहं च' के साथ 'गमिष्यामि' के रूप में पुरुष का भी विपरिणाम हो जाता है, वहाँ पर 'गमिष्यति' या ' गमिष्यामि' का साक्षात् प्रयोग करने की जरूरत नहीं है ।
पाणिनीय परम्परा के अन्य परिभाषा ग्रंथों में इस न्याय के लोकसिद्धत्व का उदाहरण इस प्रकार है-' उच्चानि गृहाणि अस्य देवदत्तस्य आमन्त्र्यस्वैनम् ।' यहाँ ' षष्ठ्यन्त' 'देवदत्तस्य' का 'एनम्' में द्वितीयान्त के रूप में विभक्तिविपरिणाम हुआ है ।
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