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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण
नहीं हो सकता है, अतः व्याकरणशास्त्र में भी अर्थ सहित ही शब्द का ग्रहण होता है ।
दूसरा प्रश्न यह है कि वर्ण के ग्रहण में इस न्याय की प्रवृत्ति होती है या नहीं ? पाणिनीय परम्परा में स्पष्ट रूप वर्ण के विषय में इस न्याय की प्रवृत्ति का निषेध किया गया है। जबकि सिद्धम की परम्परा में इसके बारे में कहीं पर, कोई उल्लेख दिखाई नहीं पडता है ।
पाणिनीय परम्परा में, दश काल की 'लट्, लिट्, लोट्, लूङ्' आदि लकार द्वारा संज्ञा की गई है और 'लस्य' (पा.सू. ३/४/७७) सूत्र से ल के विविध आदेश किया जाता है । वही 'ल' केवल एक ही वर्ण-स्वरूप है किन्तु वह अर्थवान् है, जबकि 'लभते', 'लुनाति' आदि में 'ल' अनर्थक हे । वहाँ लस्य (पा.सू. ३/४/ ७७) सूत्र की प्रवृत्ति का विषय है । अतः वर्ण के विषय में इस न्याय की प्रवृत्ति होती है या नहीं, इसका निर्णय करना जरूरी होने से पाणिनीय परम्परा में इसकी चर्चा/विचारणा की गई है । और पाणिनीय परम्परा तथा उसे अनुसरण करनेवाली अन्य परम्परा के व्याकरण के परिभाषा ग्रन्थों में 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' - न्याय के अपवाद स्वरूप ‘न वर्णग्रहणेषु' ( परिभाषासूचन, तथा परिभाषापाठ, शाकटायन, पुरुषोत्तमदेवकृत लघु परिभाषावृत्ति, सीरदेवकृत बृहत्परिभाषावृत्ति, श्रीमानशर्मनिर्मित परिभाषा टिप्पणी, नीलकण्ठ दीक्षित विरचित परिभाषावृत्ति, हरिभास्कर अग्निहोत्रीकृत परिभाषाभास्कर ) तथा 'वर्णान्तस्य विधि:' ( कातन्त्र परिभाषावृत्ति-दुर्गसिंहकृत, कातन्त्र परिभाषा सूत्रपाठ ) परिभाषाएँ हैं ।
चान्द्र, जैनेन्द्र, हैम, नागेश और शेषाद्रि के अलावा अन्य सभी परिभाषा ग्रन्थो में इसकी चर्चा की गई है और 'न वर्णग्रहणेषु' न्याय दिया है
लस्य (पा.सू. ३/४/७७) सूत्र के महाभाष्य में, इसके लिए कहा गया है कि जहाँ वर्णमात्र का ग्रहण करने को कहा गया है वहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है। अतः ऐसे स्थानों में सार्थक वर्ण के साथ-साथ अनर्थक का भी ग्रहण होता है। इसके बारे में विस्तृत चर्चा महाभाष्य और कैयट के ग्रन्थों में से देख लेना । यहाँ वह अप्रस्तुत और अनावश्यक है ।
यहाँ बताया गया कि 'तीयं ङित्कार्ये वा - ' १/४/१४ सूत्र से होनेवाला कार्य 'द्वितीय, तृतीय ' इत्यादि शब्द से होगा, किन्तु 'जातीयर् प्रत्ययान्त 'महाजातीय' शब्द से नहीं होगा क्योंकि यहाँ 'जातीयर्' का 'तीय' अंश (शब्द) अनर्थक है । अब प्रश्न यही होता है कि लोक में 'द्वितीय, तृतीय ' इत्यादि संपूर्ण शब्द ही अर्थवान् माने जाते हैं, उसका एक अंश 'तीय' अनर्थक है क्योंकि उसके द्वारा शब्द के अर्थ का बोध नहीं होता है और भाष्य का सिद्धांत है कि न केवला प्रकृति: प्रयोक्तव्या नापि केवलः प्रत्ययः । ' तथापि व्याकरणशास्त्र में प्रत्ययों के अर्थ की कल्पना की गई है । अतः शास्त्रीय कार्य के निर्वाह के लिए शास्त्र के प्रमाण से 'तीय' आदि प्रत्यय अर्थबोधक बनते हैं । यहाँ 'द्वितीय' शब्द में 'द्वेस्तीय:' ७/१ / १६५ सूत्र से 'पूरण' अर्थ में 'तीय' प्रत्यय हुआ है, अतः उसमें पूरणार्थवाचकत्व माना जाता है। 'जातीयर्' का 'तीय' इस प्रकार के अर्थ से रहित होने से उसका ग्रहण हो नहीं सकता है । यहाँ दूसरी शंका यह होती है कि 'यावकः' आदि में 'क' प्रत्यय के अभाव में जो अर्थ प्रतीत होता है, वही अर्थ 'क' प्रत्यय होते हुए भी प्रतीत होता
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