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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४) 'ति' प्रत्ययान्त/अन्तवालों के वर्जन से 'डति' प्रत्ययान्त का वर्जन हो जायेगा, ऐसी संभावना का विचार करके यहाँ 'डति' का पृथगुपादान किया है । इससे सूचित/ज्ञापित होता है कि यह न्याय अनित्य है।
'तृ स्वसृ-नप्तृ-' १/४/३८ सूत्र में 'नप्त' आदि के पृथग्ग्रहण को इस न्याय का ज्ञापक बताया है । वह इस प्रकार है-यहाँ प्रथम 'तृ' 'अर्थवान्' है, अतः इसके ग्रहण से 'उणादि' के 'तृ' प्रत्ययान्त शब्दों का ग्रहण नहीं हो सकता है क्योंकि 'उणादयोऽव्युत्पन्नानि नामानि' न्याय से 'नप्त' आदि में स्थित 'तृ' प्रत्यय अनर्थक कहा जाता है । यदि यह न्याय न होता तो, 'तृ' के ग्रहण से ही 'नप्त' आदि का ग्रहण होता, तथापि इसका पृथग्ग्रहण किया । वह इस न्याय का ज्ञापक है ।
यहाँ कोई ऐसी भी शंका कर सकता है कि यह ज्ञापक निर्बल है क्योंकि 'उणादि' नाम के लिए कहीं व्युत्पत्ति पक्ष माना गया है और कहीं अव्युत्पत्ति पक्ष भी माना गया है । अत: जब अव्युत्पत्ति पक्ष का आश्रय करेंगे तब ही 'नप्त' आदि का पृथगुपादान इस न्याय का ज्ञापक बनेगा और व्युत्पत्ति पक्ष का आश्रय करने पर वह ज्ञापक नहीं बनेगा किन्तु नियम के लिए होगा।
सूत्रकार आ. श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने स्वयं 'तृ-स्वसृनप्तृ' १/४/३८ सूत्र की वृत्ति में स्पष्टरूप से बताया है कि "तृ शब्दस्यार्थवतो ग्रहणेन प्रत्ययग्रहणान् नवादीनामव्युत्पन्नानां संज्ञा-शब्दानां तृ शब्दस्य ग्रहणं न भवतीति तेषां पृथगुपादानम् । इदमेव च ज्ञापकं अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य ग्रहणं भवतीति व्युत्पत्तिपक्षे तु 'तृ' ग्रहणेनैव सिद्धे नप्तादिग्रहणं नियमार्थम् । तेनान्येषामौणादिकानां,न भवति ।"
इस प्रकार सूत्रकार ने स्वयं ननादि के पृथग्ग्रहण को ज्ञापक माना है, तब इसको हमें निर्बल या अयोग्य मानना नहीं चाहिए । और जब 'उणादि' नाम के लिए दो पक्ष हों तब एक ही समय पर किसी एक ही पक्ष को माना जा सकता है। दोनों पक्ष को एकसाथ माना नहीं जा सकता है, अत: जहाँ व्युत्पत्ति पक्ष का आश्रय करने से कार्य सिद्ध होता हो वहाँ व्युत्पत्ति पक्ष का ही आश्रय करना चाहिए और इस प्रकार जहाँ अव्युत्पत्ति पक्ष का आश्रय करना हो, वहाँ अव्युत्पत्ति पक्ष का ही आश्रय करना चाहिए।
इस न्याय में भी कोई ज्ञापक की अपेक्षा नहीं है ऐसा कुछेक लोग मानते हैं । वे कहते हैं कि व्यवहार से यह न्याय फलित (सिद्ध ) हो जाता है । उदा. लोकव्यवहार में 'शब्द' में क्रिया का बाध होता है, अतः शब्द और अर्थ दोनों का वाच्य-वाचक सम्बन्ध करके वाच्य के विषय में प्रवृत्ति होती है। जैसे किसीने 'घटमानय' ऐसा कहा, तब ‘घट' शब्द वाचक हुआ और घट ( पदार्थ, चीज) वाच्य हुआ और लोक वाच्य के विषय में ही प्रवृत्ति करेंगे । इस प्रकार व्याकरणशास्त्र में शब्द से शब्द के अर्थ का बोध होने पर भी, उसके साथ अन्वय असंभव होने से, उसी अर्थ-विशिष्ट शब्द में ही वह कार्य होता है किन्तु शब्द के विषय-स्वरूप पदार्थ से वही कार्य नहीं हो सकता है। अतः शब्द विशेष्य हुआ, और अर्थ विशेषण हुआ । इस प्रकार व्याकरणशास्त्र में शब्द का ही प्राधान्य होता है, ऐसे सिद्धांत का स्वीकार करने पर भी विशेषण के रूप में अर्थ की उपस्थिति का निषेध
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