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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) यह अनित्यता उपयुक्त नहीं दिखायी पडती है क्योंकि प्रस्तुत न्याय से जहाँ कारकत्व का संभव हो वहाँ ही, उसी कारक की अन्य कारक के रूप में विवक्षा या अविवक्षा की जाती है किन्तु अपूर्व कारकत्व उत्पन्न नहीं किया जा सकता है, ऐसी मान्यता है, अतः 'षष्ठी' विभक्ति से उक्त सम्बन्ध में कारकत्व की विवक्षा कदापि होती नहीं है, अत: 'बहूनामिदं वस्त्रम्' में कारकत्व की विवक्षा का अभाव होने से ही 'बहु' शब्द से 'बह्वल्पार्थात्' ७/२/१५० से 'प्शस्' प्रत्यय नहीं होता है। विवक्षा भी वस्तुस्वभाव के अनुसार ही हो सकती है, अतः सम्बन्ध में कारकत्व की विवक्षा नहीं होती है दूसरी एक मान्यता ऐसी है कि कारक विभक्तियों से सम्बन्ध का अर्थबोध नहीं हो सकता है और सम्बन्ध, कारक के लिए अनुचित ही है, अतः सम्बन्ध में कारकत्व की विवक्षा के अभाव के लिए इस न्याय को अनित्य मानना उपयुक्त नहीं है।
विवक्षा में वक्ता की इच्छा ही मुख्य है, अत: यह न्याय स्वभाव से ही अनित्य होने से, उसकी अनित्यता बताने की कोई जरूरत नहीं है। श्रीहेमहंसगणि ने जो अनित्यता बतायी है वह केवल इस न्याय की स्वाभाविक अनित्यता के अनुवाद स्वरूप ही है, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं है।
॥१२॥ अपेक्षातोऽधिकारः ॥ अपेक्षा अर्थात् आवश्यकता के अनुसार अधिकार की प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है।
अपेक्षा अर्थात् इष्टता/जरूरत । आवश्यकता के अनुसार अधिकार प्रवृत्तिमान् या निवृत्तिमान समझना । अन्यथा उसकी जहाँ जरूरत हो वहाँ कोई भी ज्ञापक होना चाहिए । न्याय की तरह अधिकार की प्रवृत्ति या निवृत्ति का ज्ञापन किसी भी ज्ञापक से अवश्य होना चाहिए, ऐसी आशंका को दूर करने के लिए यह न्याय है । उदा. 'णषमसत्परे स्यादिविधौ च' २/१/६० सूत्र से शुरू होनेवाला 'असत्परे' का अधिकार 'रात्सः' २/१/९० सूत्र तक ही रहता है, और 'स्यादिविधौ च' का अधिकार 'नोादिभ्यः' २/१/९९ सूत्र तक ही जाता है, उसके आगे नहीं जाता है । यह अर्थ उसके ज्ञापक बिना ही सिद्ध होता है।
इस न्याय का ज्ञापन 'समानानां तेन दीर्घः' १/२/१ सूत्र में आया हुआ 'सामानानां' निर्देश द्वारा होता है। यहाँ 'समानानाम्' में 'आम्' का 'नाम्' आदेश 'हस्वापश्च' १/४/३२ सूत्र से होता है । किन्तु उसके पूर्व के सूत्र ‘आमो नाम्वा' १/४/३१ सूत्र से 'आमः' पद और 'नाम्' पद की अनुवृत्ति 'हुस्वापश्च' १/४/३२ सूत्र में आने पर ही इसी सूत्र से 'आम्' का 'नाम' आदेश हो सकता है, और वह इस न्याय से ही सिद्ध होता है । अन्यथा ज्ञापक के अभाव में 'आमः' और 'नाम्' की अनुवृत्ति नहीं ली जा सकती है।
__ और 'ऐदौत्सन्ध्यक्षरैः' १/२/१२ सूत्रगत 'ऐत्व', इस बात का निश्चय करता है। यहीं ऐत्व', 'उपसर्ग' में न हो ऐसे अकार' का 'ऐत्व' करता है। ऐदौत्सन्ध्यक्षरैः' १/२/१२ सूत्र में 'ऋत्यारुपसर्गस्य' १/२/९ सूत्र से चली आती 'उपसर्ग' के अधिकार रूप अनुवृत्ति की निवृत्ति होती है। यही निवृत्ति भी इसके ज्ञापक का अभाव होने से इसी न्याय से ही होती है।
यह न्याय भी ऐकान्तिक अर्थात् नित्य नहीं है । यदि अपेक्षा अनुसार ही अधिकार की प्रवृत्ति
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