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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) नहीं होती है, वहाँ किसी भी संयोग में यथासङ्ख्यम्' की प्रवृत्ति नहीं होती है। अतः यथासङ्ख्यम्' के लिए 'स्थानी' और 'आदेश' इत्यादि में समानसंख्यात्व अत्यावश्यक माना गया है।
यह न्याय कातन्त्र, कालाप व भोज व्याकरण में परिभाषा के स्वरूप में प्राप्त है, जबकि शाकाटायन, चान्द्र व जैनेन्द्र के परिभाषापाठ में यह प्राप्त नहीं है और पाणिनीय परम्परा में यह अष्टाध्यायी के सूत्र रूप में ही पठित है ।
॥११॥ विवक्षातः कारकाणि ॥ विवक्षा/वक्ता की इच्छानुसार कारक होते हैं ।
विवक्षा के अनुसार कारक होते हैं, या नहीं होते है या तो अन्यथा अर्थात् एक के स्थान पर दूसरा होता है । कारक परस्पर असाधारण/असामान्य या तो विभिन्न लक्षणयुक्त होने से नैयत्य/ निश्चितता प्राप्त होती थी। उसका निषेध करने के लिए यह न्याय है ।
इसमें, कारक न होने पर भी कारक होना, इस प्रकार है । 'भिक्षा वासयति' इत्यादि प्रयोग में 'भिक्षा' इत्यादि में किसी भी प्रकार का व्यापारत्व नहीं होने से और केवल हेतुत्व होने से वस्तुतः वह कारक नहीं है, तथापि स्वतंत्र रूप से 'वासन' ( रखने) रूप विवक्षा के कारण, कर्ता कारक होता है, किन्तु तात्त्विक दृष्टि से/वास्तविक रीति से 'भिक्षा' आदि कारक है ही नहीं । यदि 'भिक्षा' आदि में कारकत्व होता तो 'भिक्षयोषित' इत्यादि प्रयोग में 'कारकं कृता' ३/१/६८ से समास हो जाता, किन्तु ऐसा होता नहीं है, इससे 'भिक्षा' इत्यादि का 'अकारकत्व' सिद्ध होता है और जिस 'भिक्षा' आदि में वस्तुतः कारकत्व नहीं होने पर भी 'भिक्षा वासयति' इत्यादि प्रयोग में कर्ता कारक का जो प्रयोग दिखाई पड़ता है वह केवल विवक्षा के अधीन ही है।
कारक होने पर भी अकारक होना, इस प्रकार है । 'माषाणामश्नीयात्' इत्यादि प्रयोग में 'माष' आदि में 'कर्मत्व' होने पर भी, उसकी विवक्षा नहीं करने से 'शेषे' २/२/८१ सूत्र से सम्बन्ध में षष्ठी विभक्ति हुई है।
एक कारक के स्थान में अन्य कारक होना, इस प्रकार है 'ओदनः स्वयं पच्यते, असि च्छिनत्ति' इत्यादि प्रयोग में 'कर्म' और 'करण' की स्वतन्त्रता की विवक्षा करने से कर्ता कारक होता है।
इस न्याय का ज्ञापक 'स्मृत्यर्थदयेशः' २/२/११ सूत्र है । इस सूत्र द्वारा 'कर्म' को भी विकल्प से 'कर्म' संज्ञा की जाती है और इस प्रकार 'कर्म' में भी 'अकर्मत्व' का विकल्प किया जाता है।
प्रत्येक धातु के 'कर्ता, कर्म' आदि कारकों की, यदि ‘कर्ता, कर्म' आदि कारक के रूप में विवक्षा करने पर वे 'कर्ता, कर्म' आदि होते हैं । इस प्रकार की व्यवस्था प्रस्तुत न्याय के द्वारा होती है । अतः इस न्याय के अनुसार, जैसे प्रत्येक धातु में होता है, इसी तरह 'समृत्यर्थदयेश' धातुओं के 'कर्म' को 'कर्मत्व' की विवक्षानुसार 'कर्म' संज्ञा होती भी है और नहीं भी होती है । अत: 'स्मृत्यर्थदयेशः' २/२/११ सूत्र से प्रस्तुत धातुओं के 'कर्म' को विकल्प से 'अकर्म' संज्ञा करने की
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