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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १०) संख्यात्व होने पर भी 'यथासङ्ख्यम्' नहीं होता है, ऐसा बताया, वह सही है और 'आपो ङितां यैयास्यास्याम्' १/४/१७ में 'यै यास् यास् याम्' में विभक्ति का कोई प्रत्यय दिखाई नहीं पड़ता, अतः प्रथमा एकवचन का 'सि' प्रत्यय हो सकता है और उसका 'दीर्घङ्याब्व्यञ्जनात्सेः' १/४/४५ से लोप हुआ है, ऐसा मान लेने पर, और 'ङिताम्' में बहुवचन प्रयुक्त होने पर भी 'यथासङ्ख्यम्' की प्रवृत्ति हुई है। एक बार ऐसा मान लिया जाय कि 'सौत्रत्वात्' एकवचन हो सकता है तथापि 'यथासङ्ख्यम्' की प्रवृत्ति के लिए बहुवचन का प्रयोग जरूरी होने पर भी बहुवचन का प्रयोग नहीं किया है, इससे ज्ञापित/सूचित होता है कि इसी सूत्र में 'यास' की द्विरुक्ति से ही 'यथासङ्ख्यम्' की प्रवृत्ति सिद्ध होती है। अतः वहाँ समान वचन द्वारा निर्देश करने की कोई आवश्यकता दिखाई नही पड़ती । यदि इसी सूत्र में 'यथासङ्ख्यम्' प्रवृत्ति करनी नहीं होती तो, 'यास्' का पाठ एक ही बार किया होता, किन्तु 'स्थानी' स्वरूप 'ङित्' प्रत्यय स्पष्टरूप से बताये नहीं है, और उनकी संख्या चार की ही होने से उसके साथ समान संख्यात्व लाने के लिए 'यास्' की द्विरुक्ति की गई है । दुर्गसिंहकृत कातन्त्र परिभाषावृत्ति में बताया है कि 'यास्' की द्विरुक्ति करने से ही यहाँ 'यथासङ्ख्यम्' की प्रवृत्ति होती है ।'
यहाँ दूसरा भी एक समाधान हो सकता है । वह इस प्रकार है । 'आपो ङितां' १/४/१७ के बाद तुरत ही 'सर्वादेर्डस्पूर्वाः' १/४/१८ सूत्र है और इसी सूत्र में 'डस्पूर्वाः' , 'यै यास् यास् याम्' का विशेषण है, अत: 'यै यास् यास् याम्' में बहुवचन ही माना जा सकता है । इस प्रकार 'समानसंख्यात्व' और 'समानवचननिर्देशत्व' आ जाने से 'यथासङ्ख्यम्' की प्रवृत्ति नि:संकोच हो सकती है और 'यै यास् यास याम्' में बहुवचन के 'जस्' प्रत्यय का सौत्रत्वात् लोप हुआ है। 'सर्वादेर्डस्पूर्वाः' १/४/१८ सूत्र में 'स्थानी' के रूप में 'ङिताम्' पूर्व के सूत्र में से आता है और इसके साथ साथ 'डस्पूर्वाः' के विशेष्य 'यै यास् यास् याम्' की भी अनुवृत्ति होती है । इस सूत्र में 'डस्पूर्वाः' का विशेष्य स्पष्ट रूप से उक्त नहीं होने से, ङिताम् के साथ 'यथासङ्ख्यम्' करने के लिए 'डस्पूर्वाः' में बहुवचन का प्रयोग करना अनिवार्य है।
इस न्याय की अनित्यता के दो उदाहरण हैं । १. भुजिपत्यादिभ्यः कर्मापादाने ५/३/१२८, यहाँ संख्या तुल्य है किन्तु वचनभेद है तथापि यथासङ्ख्यम्' की प्रवृत्ति की गई है । जबकि दूसरे उदाहरण 'पूर्वावराधरेभ्योऽसस्तातौ पुरवधश्चैषाम्' ७/२/११५ में आये हुए 'पूर्वावराधरेभ्यो' पद में तीन शब्द हैं और बहुवचन से निर्देश किया है, और, पूर्व के सूत्र ‘दिक्शब्दाद् दिग्देशकालेषु प्रथमापञ्चमी-सप्तम्या:', ७/२/११३ से अनुवृत्त, 'दिग्देशकालेषु' और 'प्रथमा-पञ्चमी-सप्तम्याः', दोनों में तीन-तीन शब्द हैं और दोनों में बहुवचन का प्रयोग किया है, तथापि दोनों के बीच 'यथासङ्ख्यम्' की प्रवृत्ति नहीं होती है।
संक्षेप में, इस न्याय की अनित्यता केवल 'वचन' तक ही सीमित है। जहाँ संख्या समान
१. ज्ञापकं च 'ङवन्ति यैयास्यास्याम्' इति द्विर्यास्करणम् । (कातन्त्रपरिभाषावृत्ति दुर्गसिंहकृता)
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