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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण)
अपेक्षा/जरूरत अनुसार उन पदों की उपस्थिति होती है । इसे अनुवृत्ति कहा जाता है और अधिकार शब्द से भी इसका व्यपदेश होता है । सिद्धहेम की परंपरा तथा अन्य, चान्द्र, कातन्त्र आदि में शाब्दिक अनुवृत्ति के लिए 'अधिकार' शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। यहाँ अधिकार शब्द से शाब्दिक अनुवृत्ति ग्रहण करना ।
सामान्यतया पाणिनीय परम्परा में 'अधिकार' शब्द से 'अधिकार सूत्रों' का ग्रहण होता है और 'अनुवृत्ति' से शब्दों का पिछले सूत्र में से अगले सूत्र में अनुवर्तन ग्रहण होता है।
प्रो. के. वी. अभ्यंकर ने परिभाषा संग्रह की प्रस्तावना में 'अधिकार' के बारे में बताया है fon -: "A word or words or even a full sutras continues and becomes valid in the following sutras up to a limit, which is prescribed sometimes by the author of the sutras himself. Such a word is named 34fTCAT and in case, if it is a full sutras, it is called अधिकारसूत्र'५
संक्षेप में, पाणिनीय परम्परा में भी शाब्दिक अनुवृत्ति को भी अधिकार माना गया है।
जनसामान्य/आम जनता में भी प्रथम वाक्य में आये हुए पदों की, अपेक्षा अनुसार, अगले वाक्यों में उपस्थिति होती है । उदा. अत्र विद्यालये देवेन्द्रः पठति, महेन्द्रोऽध्यापयति, सुरेन्द्रो वाचयति, में पूर्व के वाक्य में स्थित 'अत्र' और 'विद्यालये', दोनों पद, अगले दोनों वाक्य में उपस्थित होते हैं । वहाँ किसी ज्ञापक की जरूरत नहीं है। इस प्रकार यह न्याय लोकसिद्ध होने से इस न्याय का ज्ञापक बताने की कोई आवश्यकता नहीं है।
पाणिनीय व्याकरण में, इसके लिए 'स्वरितेनाऽधिकारः'[पा. सू. १/३/११] परिभाषा सूत्र ही बनाया गया है, अत एव पाणिनीय परम्परा में इस न्याय का कहीं भी उल्लेख मालूम नहीं पड़ता है। चान्द्र, कातन्त्र, कालाप, जैनेन्द्र इत्यादि में यह न्याय 'इष्टोऽधिकाराणां प्रवृत्तिनिवृत्तिः ।, कार्यानुबन्धादधिकारानुवृत्तिः । भिन्नप्रतियोगे.......अधिकाराणां निवृत्तिः ।' स्वरूप में दिखायी पड़ता है।
इस न्याय की प्रवृत्ति कौन-से स्थान पर होती है ? इसके लिए दो मत हैं : १. श्रीहेमहंसगणि इत्यादि का मत है कि जहाँ किसी भी विशेष पद की अनुवृत्ति करने के लिए या ऐसे पद की अनुवृत्ति की निवृत्ति करने के लिए कोई ज्ञापक न बताया हो वहाँ इस न्याय के आधार पर आवश्यकतानुसार उसी पद की अनुवृत्ति करना या निवृत्ति करना ।
दूसरा मत ऐसा है कि किसी भी पद की अनुवृत्ति धाराप्रवाह से चली आती है, तब, वह अनुवृत्ति, ऊपर बताया गया, उसी प्रकार से लोकसिद्ध न्याय से भी सिद्ध है, तथापि जहाँ अन्य विधेय आदि के सम्बन्ध के कारण अर्थात् प्रकरण बदल जाने के कारण, ऊपर से जिस पद की
अनुवृत्ति चली आती है, उसकी स्वाभाविक निवृत्ति हो ही जाती है किन्तु उसी पद की अनुवृत्ति अन्य विधेय में भी आगे ले जानी हो तब इस न्याय का उपयोग होता है । यह युक्ति आ. श्रीलावण्यसूरिजी ने बतायी है।
महाभाष्य में अधिकार:' का 'अधिकं कार:' या 'अधिकमयं कारं करोति ।' इस प्रकार अर्थ १. परिभाषासंग्रह Introduction by Prof. K. V. Abhyankar. Pp. 46 (BORI, Poona)
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