________________
१६
न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण)
करनेवाला 'ह्विणोरविति व्यौ' ४/३/१५ सूत्र क्यों बनाया गया ? किन्तु यही सूत्र बनाया, वह इस बात को सूचित करता है कि यहाँ 'इण्' को इवर्णान्त माना गया है, अतः 'इय्' आदेश का बाध करने के लिए 'रिप्विति व्यौ' ४ / ३ / १५ सूत्र बनाया है ।
इस न्याय के 'अन्तवदेकस्मिन् रूप द्वितीय अंश में कोई अनित्यता मालूम नहीं देती । यहाँ 'एक' शब्द असहायवाचक मानना चाहिए, अर्थात् जिस वर्ण या शब्द के आगे और पीछे कोई भी वर्ण या शब्द न हो ऐसा वर्ण या शब्द यहाँ लेना ।
आदि, इसे कहा जाता है कि जिस के पूर्व में कोई भी वर्ण या शब्द न हो, किन्तु पर में वर्ण या शब्द हो तो, ऐसा वर्ण या शब्द 'आदि' में रहा हुआ कहा जाता है और जिस वर्ण या शब्द के पर में कोई वर्ण या शब्द न हो, किन्तु पूर्व में कोई वर्ण या शब्द हो तो, इसे 'अन्त' कहा जाता है । जहाँ केवल एक ही वर्ण या शब्द हो, वहाँ पर में कोई वर्ण या शब्द न होने से 'आदि' नहीं कहा जाता है, तथा पूर्व में कोई वर्ण या शब्द न होने से 'अन्त' भी नहीं कहा जाता है, अतः इस वर्ण या शब्द को 'आदि' वर्ण या शब्द सम्बन्धी होनेवाला कार्य तथा ' अन्त्य' वर्ण या शब्द सम्बन्धी होनेवाला कार्य नहीं हो सकता । उसी कार्य ( की प्राप्ति ) के लिए यह न्याय है, अतः जहाँ केवल एक ही वर्ण या शब्द है, वहाँ इससे 'आदि' वर्ण या शब्द सम्बन्धी तथा 'अन्त्य' वर्ण या शब्द सम्बन्धी कार्य होता है ।
और यही बात पाणिनीय परम्परा के 'आद्यन्तवदेकस्मिन् ' [ पा. सू. १/१/२१ ] सूत्र के महाभाष्य में बतायी गई है ।
आ. श्रीलावण्यसूरिजी के कथनानुसार यह न्याय लोकसिद्ध होने से ज्ञापक की अपेक्षा नहीं है तथा पाणिनीय व्याकरण में यह न्याय सूत्र रूप में पठित होने से वहाँ भी ज्ञापक की कोई आवश्यकता नहीं है तथापि श्रीहेमहंसगणि ने जो ज्ञापक बताये हैं, वे इस न्याय को अधिक दृढ (सुदृढ ) बनाने के लिए ही हैं ।
महाभाष्य में विविध / बहुत से दृष्टान्त दे कर यह न्याय लोकसिद्ध है ऐसा बताया गया है। इसमें से एक दृष्टान्त इस प्रकार है किसी व्यक्ति को बहुत से पुत्र होने पर ही, इसमें से यह बड़ा, प्रथम यह दूसरा, यह छोटा / तृतीय ऐसा भेद हो सकता है, जब किसी व्यक्ति को सिर्फ एक ही पुत्र होता है तो, बडा भी वह, छोटा भी वह और मँझला भी वह कहलाता है। वैसे जहाँ एक ही वर्ण या शब्द हो, वहाँ वही वर्ण या शब्द, 'आदि' भी कहलाता है और 'अन्त' भी ।
इस न्याय के प्रथमांश ' आदिवद्' में अनित्यता बताते हुए श्रीहेमहंसगणि ने कहा है कि ' आदित्व' की कल्पना से 'ई' धातु को 'गुरुनाम्यादि' मानकर 'परोक्षा' का 'आम्' आदेश होकर 'अयाञ्चक्रे' रूप होगा किन्तु जब 'ई' में आदित्व नहीं मानेंगे तब 'आम्' आदेश नहीं होगा और 'ईये, ईयाते, ईयिरे' इत्यादि रूप होंगे। यह बात आ. श्रीलावण्यसूरिजी को मान्य नहीं हैं । वे कहते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org