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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण )
से 'नोऽन्त' नहीं होगा । यहाँ 'उदित्' धातु के स्वर के बाद में 'नोऽन्त' करने के लिए 'उदित: स्वरान्नोऽन्तः' ४/४/९८ सूत्र है, अतः यहाँ 'उदित्' धातु नहीं लेना चाहिए किन्तु 'उदित्' शब्द लेना चाहिए और उसके साहचर्य से 'ऋदित्' धातु भी नहीं लिया जाता है किन्तु शब्द ही लिया जाता है । अत एव 'सम्राट्' शब्द में 'ऋदित्' राज् धातु होने पर भी इसी 'ऋदुदित: ' १/४/७० सूत्र से 'नोऽन्त' नहीं होता है ।
श्रीमहंसगणि कहते हैं कि 'स्थानीवाऽवर्णविधौ' ७/४/१०९ और 'स्वरस्य परे प्राग्विधौ ' ७/४/११०, दोनो परिभाषाएँ, इस न्याय का ही प्रपञ्च (विस्तार) है। जबकि श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यह बात उचित नहीं है । परिभाषाएँ प्रत्यक्ष सिद्ध है क्योंकि सूत्रकार आचार्यश्री ने स्वयं इसका विधान किया है । जबकि न्याय लोक, शास्त्र, व्यवहार इत्यादि से अनुमित है । अतः प्रत्यक्ष सिद्ध का 'अनुमित' न्याय से बाध करना संभव नहीं है । अतः उपर्युक्त दोनों परिभाषाएँ इसी न्याय का ही प्रपञ्च है, ऐसा नहीं कहा जा सकता ।
और, जहाँ इन दोनों परिभाषाओं से सूत्र की प्रवृत्ति न होती हो तथा किसी भी प्रकार का ऐसा वचन या कार्य 'भूतपूर्व धर्म' का आश्रय किया बिना सिद्ध न हो सकता हो, वहाँ ही इस न्याय की प्रवृत्ति करनी चाहिए ।
ऐसा लगता है कि आ. श्रीलावण्यसूरिजी ने प्रपञ्च को बाध मानकर, श्रीहेमहंसगणि के विधान का खंडन किया है । वस्तुतः परिभाषा को जब लोकसिद्ध न्याय का प्रपञ्च माना जाता है तब परिभाषा और न्याय के बीच अनिवार्य रूप से बाध्य - बाधक सम्बन्ध होता ही है, ऐसा मान लेने की जरूरत नहीं है । यहाँ तो 'स्थानीवाऽवर्णविधौ ७/४/१०९, और 'स्वरस्य परे प्राग्विधो' ७/४/११० दोनों परिभाषाएँ तथा प्रस्तुत न्याय के (विषय) प्रदेश भिन्न-भिन्न हैं, ऐसा बताकर श्रीहेमहंसगणि प्रतिपादित करते हैं कि मूलभूत एक ही विचारप्रवाह का यह प्रपञ्च है अर्थात् दोनों परिभाषाएँ और इस न्याय, दोनों में 'भूतपूर्वकत्व' का उपचार करने का तत्त्व समान ही है और यह न्याय परिभाषाओं के प्रदेश में संकोच नहीं करता है ।
दूसरी एक बात यह है कि 'सङ्ख्यानां र्णाम्' १/४/३३ में बहुवचन का प्रयोग किया है, अतः 'अष्टानाम्' में जिस 'अष्टन्' शब्द के 'न्' का 'वाष्टन आः स्यादौ' १/४/५३ से 'आ' हुआ है ऐसे 'अष्टा' से पर आये हुए 'आम्' का 'नाम्' आदेश होता है । यहां 'ष्र्णाम्' के बहुवचन को इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक माना है । यहाँ कोई भी ऐसी शंका कर सकता है कि 'अष्टा' से पर आये हुए 'आम्' का 'नाम्' आदेश, 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्याय से हो सकता है, अतः इस के लिए इस न्याय का उपयोग और इसकी अनित्यता के कारण से बहुवचन का प्रयोग करना उचित नहीं है । उसका प्रत्युत्तर यह है कि 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्याय से 'अष्टा' में 'अष्टन्' शब्द का 'सङ्ख्यावाचकत्व' आता है, किन्तु 'नान्तत्व' आता नहीं है । अतः इस न्याय का उपयोग जरूरी है और यह न्याय अनित्य होने से जब इसकी प्रवृत्ति नहीं होगी तब 'अष्टा' में 'नान्तत्व' नहीं आयेगा । उसी परिस्थिति में भी 'आम्' का 'नाम्' आदेश करने के लिए 'र्णाम्' में बहुवचन का प्रयोग किया है ।
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