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न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण ) श्रीमहंसगणि 'आद्यन्तवदेकस्मिन्' की व्याख्या करते हुए 'न्यायसंग्रह' के 'न्यास' में कहते हैं कि पूर्व की वृत्तियों में इस न्याय की व्याख्या इस प्रकार की गई है : 'एकस्मिन्नपि सत्याद्यन्तयोरिव सतोः कार्यं पर्यालोच्यते ।' इसका भावार्थ इस प्रकार है -: जहाँ एक ही वर्ण या शब्द हो, किन्तु कार्य 'तदादि' सम्बन्धी या 'तदन्त' सम्बन्धी कहा हो, वहाँ उसी वर्ण या शब्द 'आदि' और 'अन्त्य' न होने पर भी उसे 'तदादि' या 'तदन्त' सम्बन्धी कार्य होता है । 'अनातो नश्चान्त... ' ४ / १ / ६९ सूत्र के न्यास में भी इसी व्याख्यानुसार दृष्टान्त / उदाहरण दिया है / जैसे 'ऋ' धातु के अन्त में कुछ नहीं है तथापि कुछ है ऐसी विवक्षा करने पर वह 'ऋदादि' कहलाता है और जब 'ऋ' धातु के पूर्व में कुछ नहीं होने पर भी कुछ है, ऐसी विवक्षा करने पर वह 'ऋदन्त' कहलाता है ।
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यहाँ इस प्रकार 'आद्यन्तवद्' पद 'मतु' प्रत्ययान्त है और वह ' मन्तव्यम्' पद रूप क्रिया का सूचक है किन्तु वह अध्याहार है । समग्र अर्थ / तात्पर्यार्थ यह है कि जहाँ एक ही वर्ण या शब्द हो वहाँ वह वर्ण या शब्द को 'आदि' और 'अन्त' सहित मानना चाहिए ।
जबकि श्रीमहंसगणि अपनी व्याख्या बताते हुए कहते हैं कि यहाँ 'आद्यन्त' पद को 'स्यादेरिवे' ७/१/५२ से 'वत्' प्रत्यय लगने पर 'आद्यन्तवद्' होता है । वे कहते हैं कि इन दोनों व्याख्याओ में से, विद्वानों को जो व्याख्या सही लगे उसका वे स्वीकार करें ।
किन्तु आ. श्री लावण्यसूरिजी ने इन दोनों व्याख्याओं में से पूर्व की व्याख्या का पूर्णत: खंडन किया है । उनके अभिप्रायानुसार 'आद्यन्तवद्' में 'मतु' प्रत्यय नहीं है । जबकि दूसरी व्याख्या के लिए वे कहते हैं कि 'आद्यन्तवद्' अलग करने पर 'आदिवद् एकस्मिन्' और 'अन्तवद् एकस्मिन् ' होता है । यहाँ 'आदि' और 'अन्त', दोनों पद प्रथमान्त हो ऐसा मालूम देता I और 'एकस्मिन् ' पद सप्तम्यन्त है । यहाँ उपमान और उपमेय दोनों में समान विभक्ति होनी चाहिए। अतः 'आदि' और 'अन्त' दोनों को सप्तम्यन्त करने पर 'आदाविव एकस्मिन्' और 'अन्त इव एकस्मिन् ' करने पर, 'स्यादेरिवे ७/१/५२ से 'वत्' प्रत्यय होने के बजाय 'तत्र' ७/१/५३ से वत् प्रत्यय होगा जब उपमान और उपमेय में एक समान विशिष्ट क्रिया का निर्देश होता है तब ही 'स्यादेरिवे' ७/१/५२ से, 'वत्' प्रत्यय होता है । यहाँ इस प्रकार का विशिष्ट क्रियासाम्य नहीं है, अतः 'स्यादेरिवे' ७/१/५२ से 'वत्' प्रत्यय न हो कर 'तत्र' ७/१/५३ से केवल सप्तम्यन्त शब्द से होनेवाला 'वत्' प्रत्यय होगा, अतः 'आद्यन्तवद्' को 'वत्' प्रत्ययान्त बताया वह बराबर है किन्तु, इसके लिए 'स्यादेरिवे' ७/१/५२ सूत्र का निर्देश किया वह उपयुक्त नहीं है ।
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एक बात यह और विशेष ध्यान देने योग्य है कि कुछेक इस न्याय को केवल वर्ण सम्बन्धी ही मानते हैं, जबकि श्रीहेमहंसगणि न्यासकार की व्याख्यानुसार, इस न्याय को वर्ण और शब्द दोनों सम्बन्धी मानते हैं ।
आ. श्रीलावण्यसूरिजी के मतानुसार 'न्यायसंग्रह' और सिद्धहेम में 'नाम' के विषय में 'अन्तवद्भाव' का उदाहरण 'सर्वस्मै' दिया है, वह सही है (यद्यपि मेरी दृष्टि से वह सही नहीं है । ) और इसकी समझ इसी प्रकार है 'ङ' प्रत्यय का 'स्मै' आदेश 'सर्वादेः स्मैस्मातौ' १/४/७ से
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