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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.६) धातुत्व नहीं होने से, 'त्यादि' प्रत्यय नहीं होता है, किन्तु 'स्यादि' प्रत्यय होंगे।
इस न्याय का ज्ञापक ‘परिव्यवात् क्रियः' ३/३/२७ सूत्र में प्रयुक्त ‘क्रियः' रूप ही है। यदि यह न्याय न होता तो 'क्री' का 'क्रियः' रूप हो ही नहीं सकता और यह न्याय अनित्य होने से 'तदः से: स्वरे पादार्था' १/३/४५ में 'तदः' के स्थान पर 'तस्मात्' शब्द का ही प्रयोग किया जाता । यह न्याय नित्य होता तो 'तस्मात्' शब्द का ही प्रयोग करना होता ।
प्रथम इस न्याय की बृहद्वृत्ति 'न्यायार्थमञ्जुषा' और 'स्वोपज्ञन्यास' देखने से एक बात स्पष्ट होती है कि इस न्याय की बृहवृत्ति पूर्णतः मिल नहीं पायी है किन्तु कुछ अंश बाकी रह जाता है क्योंकि 'न्यास' में 'वृत्ति' के विशिष्ट पदों की समझ दी गई है । और इस न्याय के 'न्यास' में 'शब्दार्थानुकरणमिति' कहकर 'शब्दार्थानुकरण' किसे कहा जाता है इसकी समझ दी गई है। किन्तु इस न्याय की छपी हुई वृत्ति में कहीं भी 'शब्दार्थानुकरणम्' शब्द नहीं हैं । अतः सामान्यतः ऐसा अनुमान हो सकता है कि श्रीहेमहंसगणि द्वारा विरचित मूल बृहद्वृत्ति में 'शब्दार्थानुकरणम् 'शब्द होगा, किन्तु किसी भी कारण से वह अंश लुप्त हो गया होगा, और इसी कारण से पश्चात्कालीन प्रतियों में इसकी प्रतिलिपि नहीं हुई होगी।
इस न्याय के 'अनुकरण' शब्द की समझ देते हुए, श्रीहेमहंसगणि 'शब्दार्थानुकरणम्' ऐसा शब्दप्रयोग करते हैं । अनुकरण' शब्द से 'अनुकार्य' की आकांक्षा उत्पन्न होती है। अतः 'अनुकार्य' अर्थात् 'शब्द' यहाँ उपस्थित होता है। यह बात समझाने के लिए 'शब्दार्थानुकरणम्' और 'शब्दानुकरणम्' ऐसे दो शब्दप्रयोग होते हैं । और ये शब्दप्रयोग विवक्षाधीन हैं । जब 'अनुकार्य' और 'अनुकरण' की भेदविवक्षा होती है तब 'शब्द है अनुकार्य अर्थ (वस्तु) जिसका, वह 'शब्दार्थ' और वह 'शब्दार्थ' रूप 'अनुकरण', 'शब्दार्थानुकरण' कहा जाता है ।
जब अभेद विवक्षा होती है तब 'शब्दानुकरण' में आये हुए 'शब्द' शब्द में ही 'अर्थ' का समावेश हो जाता है।
यही वात कैयट अन्य प्रकार से प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि अनुकर्ता' कदाचित् सामान्य का अनुकरण करता है, तो कदाचित् विशेष का अनुकरण करता है । जब सामान्य का अनुकरण होता है तब विशेष से होनेवाले कार्य सामान्य से नहीं होते हैं क्योंकि सामान्य में प्रकृतित्व का अभाव मालूम देता है, अत: 'प्रकृतिवद्भाव' होता नहीं है, और जब विशेष का अनुकरण होता है तब उसके निमित्त होनेवाले कार्य होते हैं । उदा. 'क्षि' को धातु भी नहीं और अधातु भी नहीं मानकर, सामान्य से केवल 'क्षि' के रूप में ही अनुकरण होता है । तब धातु सम्बन्धी 'इय्' आदेश नहीं होता है, किन्तु जब 'नामत्व, धातुत्व' आदि को मन में लाकर अनुकरण होता है तब नामत्व के कारण' 'स्यादि' प्रत्यय और धातुत्व के कारण 'इय्' आदेश भी होगा ।
__ इस बात को अन्य परिभाषा-वृत्तिकारों ने भिन्न-भिन्न रीति से बतायी है। परिव्यवात् क्रियः' ३/३/२७ में, इस न्याय से आनेवाले 'प्रकृतिवत्त्व' के कारण 'धातुत्वनिमित्तक' 'इय्' आदेश होता
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