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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.५) कार्य की अप्राप्ति है वहाँ कार्यकी प्राप्ति के लिए है।] यहाँ आदि में आये हुए वर्ण सम्बन्धी कार्य इस प्रकार हैं।
'ईहाञ्चक्रे' आदि में धातु के आद्य वर्ण (स्वर) 'गुरु नामी' है, इस लिए परीक्षा में 'गुरु नाम्यादेरनृच्छूर्णोः' ३/४/४८ सूत्र से आम् होगा । इस प्रकार ईङ्च् गतौ' धातु में 'नामी दीर्घ' स्वर ही है, इसे भी 'नाम्यादि' धातु मानकर परोक्षा में 'अयाञ्चक्रे' रूप सिद्ध करने के लिए 'गुरुनाम्यादेरनृच्छूर्णोः' ३/४/४८ से 'आम्' होगा । वैसे नाम/शब्द सम्बन्धी कार्य इस प्रकार है। 'इन्द्रे' १/२/३० सूत्र में 'सप्तम्या आदिः' ७/४/११४ परिभाषा सूत्र से, ‘इन्द्रे' का अर्थ 'इन्द्र-शब्द जिस के आदि में है, ऐसे शब्द बाद में/पर में आये हों तो' करने पर, लघु न्यासकार की इसी व्याख्यानुसार 'इन्द्रयज्ञ' इत्यादि शब्द पर में आने पर ही 'गो' के 'ओ' का 'अव' आदेश होता है
और 'गवेन्द्रयज्ञ' आदि शब्द बनते हैं, किन्तु 'गवेन्द्र' आदि शब्द की सिद्धि नहीं हो सकती, किन्तु इस न्याय से 'इन्द्र' शब्द में आदित्व मानकर 'गो' के 'ओ' का 'अव' आदेश सिद्ध होता है।
इस न्याय का ज्ञापक ‘य स्वरे पादः पदणिक्यघुटि' २/१/१०२ में 'णि' का वर्जन है। इस सूत्र में 'णि' का वर्जन किया है, वह सूचित करता है कि 'णि' को 'स्वरादि' माना गया है। यदि वह ‘णि' केवल स्वर होने से, इस न्याय के अभाव में 'णि' को स्वरादि माना गया न होता तो प्रसंगाभाव से ‘णि' का वर्जन न किया होता ।
इस न्याय का आद्यांश 'आदिवदेकस्मिन्' अनित्य होने से 'ईयते' धातु को 'नाम्यादिगुरु न मानकर परोक्षा' में 'आम्' के अभाव में 'ईये, ईयाते, ईयिरे' इत्यादि रूप भी होते हैं।
एक स्वरवाले धातु या शब्द को स्वरान्त मानने की कल्पना इस प्रकार है -: जैसे 'जेता' इत्यादि प्रयोग में धातु 'नाम्यन्त' होने से 'नामिनो गुणोऽक्ङिति'४/३/१ से 'गुण' होगा, वैसे 'एता' इत्यादि रूप में भी धातु केवल 'नामी' स्वर रूप होने पर भी इसे 'नाम्यन्त' मानकर 'नामिनो गुणोऽक्ङिति' ४/३/१ से 'गुण' होगा ।
नाम/शब्द के सम्बन्ध में उदाहरण इस प्रकार है । 'सर्वादेः स्मैस्मातौ' १/४/७ सूत्र में 'सर्वादि' शब्द 'स्यादि' अधिकार में आया है, इस लिए वह 'विशेषण' बन जाता है, अत एव 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ परिभाषा सूत्र से, न्यासकार की व्याख्यानुसार 'सर्वाद्यन्त' ऐसे ‘परमसर्व' इत्यादि शब्द से ही 'स्मै, स्मात्' आदि आदेश रूप प्रत्यय होते हैं, किन्तु इस न्याय से केवल 'सर्व' शब्द को भी 'सर्वाद्यन्त' मानकर स्मै, स्मात्' आदि आदेश रूप प्रत्यय होंगे । इस प्रकार ‘परमसर्वस्मै' इत्यादि रूप की तरह 'सर्वस्मै' आदि रूप भी सिद्ध होंगे।
इस न्याय का 'अन्तघदेकस्मिन्' अंश का ज्ञापक 'ह्विणोरप्विति व्यौ' ४/३/१५ सूत्र है। इस सूत्र में 'इण्' धातु के 'इ' का 'य' करने का विधान है। 'धातोरिवर्णोवर्णस्येयुव् स्वरे प्रत्यये' २/ १/५० सूत्र से 'इ' वर्णान्त के 'इ' का 'इय्' आदेश होता है । यदि 'इण्' धातु केवल इकार रूप होने से इसे 'इवर्णान्त' न माना गया होता तो 'इय्' आदेश ही नहीं होता, तो 'इय्' आदेश का बाध
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