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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.४)
ऊपर बताये हुए तरीके से आसन्न 'लू' नहीं होगा ।
'हे चैत्र ३ एहि ।' यहाँ 'अ कार' का 'दूरादामन्त्र्यस्य गुरुर्वैकोऽनन्त्योऽपि लनृत्' ७/४/९९ सूत्र से 'प्लुत' आदेश होगा, बाद में 'प्लुतोऽनितौ' १/२/३२ से 'असन्धि' होगी । इस्व' और 'दीर्घ' सम्बन्धी विधि में प्रायः सर्वत्र 'स्थानी' का ग्रहण नहीं किया है, अतः 'इस्वविधि और 'दीर्घविधि सर्वत्र 'स्वर' सम्बन्धी ही होती है तथा 'स्वर' रूप स्थानी अनुक्त है, वह इस न्याय का ज्ञापक है ।
'प्लुत' अंश में कोई ज्ञापक सूत्र नहीं है क्योंकि 'प्लुतविधि' के सूत्र ‘सम्मत्यसूयाकोपकुत्सनेष्वाद्यामन्त्र्यमादौ स्वरेष्वन्त्यश्च प्लुतः' ७/४/८९ सूत्र में 'स्वर' रूप स्थानी उक्त ही है, तो इस न्याय में 'प्लुत' का विधान क्योंकिया ?
हस्व, दीर्घ के साहचर्य मात्र से ही यहाँ 'प्लुत' का ग्रहण किया है । यहाँ उदाहरण देने की भी कोई आवश्यकता नहीं थी किन्तु 'प्लुत' का स्थान रिक्त न रह पाये, इस लिए ही उदाहरण दिया है या तो अन्य वैयाकरण, जिन्होंने इस न्याय को ध्यान में रखते हुए, यदि 'प्लुतविधि' सूत्र में 'स्वर' रूप स्थानी का ग्रहण न किया हो, उन के मतानुसार / अभिप्रायानुसार 'प्लुत' के अंश में स्थानी का अनुपादान बताना है । ये सब न्यायसूत्र भिन्न-भिन्न व्याकरण और वैयाकरण के लिए सर्वमान्य हैं, अत: इस न्याय में ‘प्लुत' का ग्रहण अनर्थक नहीं है।
यह न्याय, 'षष्ठ्यान्त्यस्य' ७/४/१०६ परिभाषा का अपवाद है या अन्य कोई परिभाषा का अपवाद है या तो स्वतंत्र परिभाषा (न्याय) है, इसके बारे में आ. श्रीलावण्यसूरिजी ने विस्तृत विवेचन करके सिद्ध किया है कि यह परिभाषा (न्याय) 'षष्ठ्यान्त्यस्य' ७/४/१०६ या अन्य कोई भी परिभाषा का अपवाद नहीं है किन्तु स्वतंत्र परिभाषा ही है और जहाँ जहाँ सूत्र में स्थानी 'स्वर' उक्त न हो, वहाँ हस्व, दीर्घ आदि आदेश, स्वर के ही होते हैं, ऐसा यह न्याय कहता है ।
इस न्याय के प्रदेश अर्थात् कहाँ-कहाँ इसका उपयोग होता है, उसकी चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी ने 'केचित्तु' शब्द द्वारा श्रीहेमहंसगणि और अन्य का अभिप्राय बताते हुए कहा है कि 'प्रतक्ष्य' आदि प्रयोग में अर्द्धमात्रावाले दो व्यञ्जन इकट्ठे हो कर, एक मात्रा होने पर हस्व संज्ञा हो सकती है किन्तु ह्रस्व संज्ञा भी स्वर की ही होती है ऐसा इस न्याय से सूचित होने से 'क्ष' में एकमात्रत्व होने पर भी हस्व संज्ञा नहीं होगी और हुस्व संज्ञा निर्दिष्ट 'हस्वस्य तः पित्कृति' ४/४/११३ से 'त्' का आगम नहीं होगा । तथा 'तितउ' जैसे शब्द में अ तथा उ रूप स्वरसमुदाय में द्विमात्रत्व होने पर भी दीर्घ संज्ञा नहीं होगी और 'तितउच्छत्रम' जैसे प्रयोग में दीर्घसंजानिर्दिष्ट 'अनाङमाङो दीर्घाद् वा च्छ:' १/३/२८ से छ के द्वित्व में विकल्प नहीं होगा क्योंकि इस न्याय में 'स्वरस्य' शब्द में एकवचन प्रयुक्त है, अतः एक ही वर्ण में इस्वत्व, दीर्घत्व, या प्लुतत्व गुण आता है किन्तु वर्णसमुदाय में इस्वत्व आदि कोई गुण नहीं आता है । यह बात श्रीहेमहंसगणि ने 'न्यायसंग्रह' के न्यास में इस न्याय के फल स्वरूप बतायी है।
जबकि दूसरे कुछेक कहते हैं कि इस न्याय का क्षेत्र जहाँ स्थानी अनुक्त है ऐसे हूस्वादि विधायक सूत्र ही हैं अर्थात् जहाँ हूस्वादि आदेश होनेवाले हैं किन्तु स्थानी बताया न हो वहाँ स्वर
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