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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ३ )
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उसी तरह 'पौर्वशिशिरकम्' होगा । यहाँ दोनों प्रयोगों में 'वर्षाकालेभ्य:' ६/३/८० से 'काल' अर्थ में होनेवाला 'इकण्' प्रत्यय होगा, किन्तु वर्षालक्षण अर्थात् वर्षा शब्द से होनेवाला इकण् प्रत्यय नहीं होगा । यहाँ 'पूर्व' शब्द ऋतु (वर्षा) के अवयव का सूचक नहीं है, अतः 'अंशादृतो:' ७/ ४/१४ से उत्तरपद की वृद्धि नहीं होती है किन्तु 'वृद्धिः स्वरेष्वादेर्ज्जिति तद्धिते' ७/४/१ से पूर्वपद की वृद्धि होगी ।
इसी न्याय का ज्ञापन 'अंशाहतो: ' ७/४/१४ सूत्र स्वरूप वृद्धि विधान से होता है क्योंकि इस सूत्र में ही कहा गया है कि पूर्वपद में अंशवाचक शब्द हो और उत्तरपद में ऋतुवाचक शब्द हो तो, ऋतुवाचक शब्द के आद्यस्वर की वृद्धि होती हे । वह इस प्रकार -:' अंशादृतो: ' ७/४/१४ से होनेवाली उत्तरपदकी वृद्धि, 'वर्षाकालेभ्यः' ६/३/८० और 'भर्तुसन्ध्यादेरण्' ६/३/८९ से विहितत्- णित् प्रत्यय होने के बाद ही होती है । वही 'ञित् णित्' प्रत्यय, यदि 'पूर्ववर्षा' आदि शब्दों से वे ऋत्वन्त होने के कारण 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः || १८ ||' न्याय से निषेध होने से, न होते तो ‘अंशादृतो: ' ७ / ४ / १४ सूत्र निर्विषय अर्थात् व्यर्थ बन जाता है । वही सूत्र व्यर्थ हो कर ज्ञापन करता है कि अवयववाचक पूर्वपदवाले ऋत्वन्त शब्द से 'ञ्णित्' प्रत्यय होते हैं तब इस न्याय से 'ग्रहणवता नाम्ना - ' न्याय बाधित होने पर निर्विघ्नतया 'ञ्णित्' प्रत्यय होते हैं और इसी कारण से ही यह न्याय बताया गया है ।
इस न्याय में, पूर्व न्याय में बताया है इस प्रकार से 'पूर्वा' और 'वर्षा' शब्दों का 'वर्षाणां पूर्वो भागः पूर्ववर्षाः, तासु भवं पूर्ववार्षिकम्' में 'पूर्वापराधरोत्तरमभिन्नेनांशिना' ३/१/५० से अंशितत्पुरुष समास होगा । और जब श्रीहेमहंसगणि ने बताया है उसी प्रकार से 'पूर्वाश्च ता वर्षाश्च, पूर्ववर्षा:' में कर्मधारय समास होगा तब भी यदि 'पूर्वा' शब्द अवयववाचक होगा तो, इस न्याय से 'वर्षाकालेभ्य:' ६/३/८० से 'इकण्' प्रत्यय होकर 'पूर्ववार्षिकम्' बनेगा और वहाँ ' पूर्वापरप्रथमचरम-जघन्य-मध्य-' ३/१/१०३ से समास होता है । ठीक उसी तरह 'पूर्वशिशिर' शब्द में भी 'अंशितत्पुरुष' और 'कर्मधारय' दोनों में ' भर्तुसन्ध्यादेरण्' ६/३/८९ से ' भव' अर्थ में अण् प्रत्यय होगा और 'पूर्वशैशिरम्' बनेगा ।
आ. श्रीलावण्यसूरिजी ने इस बात का खंडन किया है। उनका कहना है कि 'पूर्वा' और 'वर्षा' शब्दों का जब 'पूर्वापरप्रथमचरम ' - ३/१/१०३ से कर्मधारय समास होगा तब 'पूर्व' शब्द पूर्वावयत्रसम्बन्धनिमित्तक है किन्तु वस्तुतः अवयववाचक नहीं है। अतः उसमें अवयवत्व आता नहीं है इसलिए उससे तदन्तविधिरूप 'वर्षाकालेभ्यः ' ६/३/८० से 'इकण्' प्रत्यय भी नहीं होगा । किन्तु उनका यह तर्क उचित नहीं है क्योंकि आ. श्रीहेमचंद्रसूरिजी ने जिस प्रकार से, कर्मधारय समास में 'पूर्व' आदि शब्दों का अवयवत्व बताया है ठीक उसी प्रकार से श्रीहेमहंसगणि ने भी उसको स्वीकार किया है। उसके प्रमाण के रूप में इतना बताना पर्याप्त है कि, स्वयं श्रीहेमचन्द्राचार्यजी द्वारा बनायी गई श्रीसिद्धहेमबृहद्वृत्ति में ' अंशादृतो: ' ७/४/१४ सूत्र की वृत्ति में 'पूर्वासु वर्षासु भवः पूर्ववार्षिकः ' इस प्रकार से समास बताया है और यहाँ भी उन्होंने 'पूर्व' शब्द के अवयवत्व का स्वीकार किया है ।
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