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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.२) हैं, ऐसे शब्द दो प्रकार के होते हैं (अ) रूढ-दिशावाचि शब्द और (ब) यौगिक दिशावाचि शब्द। अतः केवल 'दिश्' शब्दका प्रयोग करने पर, यौगिक और रूढ दोनों प्रकार के दिशावाचि शब्दों का प्रयोग होगा, अतः केवल रूढ दिशावाचि शब्द लेने के लिए रूढि' शब्द का प्रयोग अनिवार्य है।
आ. श्रीलावण्यसूरिजी ने, 'न्यायसंग्रह' में बताये हुए इसी न्याय के ज्ञापक 'सुसर्वार्धाद राष्ट्रस्य' ७/४/१५ और 'अमद्रस्य दिशः' ७/४/१६ सूत्र में बताये हुए, उत्तरपद की वृद्धि संबंधी विधान के ज्ञापकत्व की विशेष रूप से चर्चा की है। उन्होंने तर्क से जिस प्रकार से खंडन-मंडन किया है, उसी प्रकार श्रीहेमहंसगणि ने भी, 'न्यायसंग्रह' की बृहद्वत्ति के न्यास में भी खंडन-मंडन किया है । उन्होंने ऐसा भी कहा है कि "इस प्रकार 'मद्राद् अञ्' ६/३/२४ सूत्र को 'पुरातन न्यायवृत्ति' में, इसी न्याय के ज्ञापक के रूप में बताया है किन्तु 'मद्राद् अञ्' ६/३/२४ सूत्र केवल 'दिक्शब्देभ्यो जनपदस्य' अंश का ही ज्ञापक बनता है लेकिन संपूर्ण न्याय का ज्ञापक बनता नहीं है और हमारे द्वारा/श्रीहेमहंसगणि के द्वारा बताया हआ ज्ञापक संपर्ण न्याय का ज्ञापक है, अतः 'मद्राद अञ्' ६/३/२४ सूत्र को इसी संपूर्ण न्याय के ज्ञापक के रूप में नहीं रखा जा सकता है। आ. श्रीलावण्यसूरिजी ने इस अभिप्राय को स्वीकृति दी है । दोनों द्वारा की गई विचारणा समान है किन्तु श्रीहेमहंसगणि द्वारा की गई चर्चा सरल और संक्षिप्त है।
इसी न्याय को 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः ॥१८॥' न्याय का अपवाद गिना जाय या नहीं उसकी विचारणा, जिस प्रकार आ. श्रीलावण्यसूरिजी ने की है वैसे श्रीहेमहंसगणि ने भी, इस न्याय के न्यास में, इसकी विचारणा की है और सिद्ध किया है कि यह न्याय 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः' ॥१८॥ न्याय का अपवाद ही है और वह बहुत सरल और स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार है।
'ग्रहणवता नाम्ना'-न्याय का प्रसंग उपस्थित होने पर ही यह न्याय, उसका अपवाद बन सकता है । जहाँ पर सूत्र में स्पष्ट रूप से विशेष शब्दों का निर्देश कर उनसे कोई विशेष विधि करने का विधान किया हो, वहाँ ही 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधि ॥' न्याय उपस्थित होता है । उदा. 'दन्तपादनासिका'- २/१/१०१
किन्तु यहाँ 'बहुविषयेभ्यो राष्ट्रवाचिनामभ्यः' इस प्रकार सामान्यतया ही विधान किया है अतः 'सुमागधकः' आदि में 'ग्रहणवता नाम्ना-' न्याय का प्रसंग, कैसे उपस्थित होता है ? इसके उत्तर में श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि बहुवचन में ही प्रयोग होनेवाले 'राष्ट्रवाचि' नाम परिगणित अर्थात् मर्यादित संख्या में ही हैं- जैसे 'अङ्ग, बङ्ग, वृजि, मद्र, मगध, पाञ्चाल' इत्यादि नियत ही हैं, अतः सूत्र में स्पष्ट रूप से इन सब शब्दों को बताया नहीं है तथापि इन सबको बताये हुए मानना चाहिए। अतः यहाँ पर भी 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः' ॥ न्याय की उपस्थिति होती है। और इसी तरह से इस न्याय के बाद आनेवाले न्याय में भी 'भर्तुसन्ध्यादेरण' ६/३/८९ सूत्र में बताये हुए नक्षत्रवाचि, ऋतुवाचि, और सन्ध्या-आदि शब्दों की परिगणना नहीं कि गई है तथापि इनको परिगणित ही मानना चाहिए और वहाँ भी 'ग्रहणवता नाम्ना-' न्याय का प्रसंग उपस्थित होता ही है।
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