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व्यंग्य वचन बोलना जिससे उसकी आत्मा क्लेशित (4) पुरुषार्थ के द्वारा ही आत्मा का उद्धार हो उचित नहीं क्योंकि अहिंसा-धर्म सर्व प्रधान है, तथा कर्म फल प्राप्त होता है। यह प्रक्रिया मन के अन्य धर्म उसकी रक्षा के लिए हैं।
भावों के अनुसार स्ययमेव चलती रहती है । निना दिए दूसरे की वस्तु को बुरे भाव से (5) आत्मा तथा पुद्गल भिन्न-भिन्न हैं । उठाना चोरी है । दांत कुरेदने का तिनका तक
(6) सांसारिक भोग-उपभोग नश्वर तथा स्वामी से पूछ कर लेना चाहिए । सांसारिक
इनके द्वारा सुख प्राप्ति की आशा दुराशा वस्तुओं में ममत्व रखना परिग्रह है।
मात्र है। भगवान महावीर ने इन सब व्रतों के अतिचार या दोषों का विवेचन करते हुए कहा कि स्वयं
(7) चार प्रकार का दान-औषधि, शास्त्र चोरी न करते हुए भी चोरी की प्रेरणा या सुयोग
(विद्या), अभय (शरण आदि देकर भय दूर देना, चोरी का माल खरीदना, टेक्स आदि की करना) और आहार दान शक्ति के अनुसार अवश्य
करना चाहिए । चोरी, बाँट-तराजू दो प्रकार के रखना जिससे माल खरीदते समय अधिक और बेचते समय कम लिया
(8) इस लोक, परलोक, रोग, मरण, दिया जा सके, जाली सिक्के, नोट आदि बनाना तथा
आकस्मिक दुर्घटना आदि 7 प्रकार के भय करके नकली माल को असली बता कर देना या वस्तुप्रों
आत्मा को क्लेशित नहीं करना चाहिए । में मिलावट करना आदि सब चोरी के समान ही पाप रूप एवं निंद्य है। भगवान् महावीर
(9) जाति, कुल, रूप, विद्या, बुद्धि, धन, ने कहा :
शारीरिक बल आदि का गर्व न करते हुए पाठ
मदों से बचना चाहिए । (1) 'स्वयं जियो तथा दूसरों को जीने दो' क्योंकि सभी प्राणियों को जीने का समान अधिकार
. भगवान महावीर के उक्त उपदेश किसी एक है। सभी को जीवन प्रिय है और मरण अप्रिय ।
काल या देश के लिए न होकर सार्वकालिक तथा किसी प्राणी की हिंसा करने में अपनी भाव हिंसा
सार्वदेशीय हैं। उनके आलोक में प्राज की सभी पहले ही होती है । किसी जीव को मारना, घायल
समस्याओं का हल खोजा जा सकता है तथा उनके करना, दास बनाना या शोषण करना सभी
परिपालन से अखिल विश्व में सुख-शान्ति की हिंसा है।
अनवरत सृष्टि हो सकती है। आधुनिक विश्व की (2) सभी मनुष्य समान हैं । कोई भी जाति,
निम्न समस्याओं के हल भगवान् महावीर के वर्ण, रंग, लिंग रूपादि के कारण ऊंचा या नीचा
उपदेशों में बीज रूप में विद्यमान थे:नहीं होता । मन की प्रवृत्ति तथा गुणों के अनुसार
(1) समाजवाद-दूरंदेश, कर्मठ तथा उद्योगी ही मनुष्य सद्गुणी होता है, वरना सब समान हैं ।
व्यक्ति भोगों से अलिप्त रहते हुए भी अपने पूर्व (3) सत्य सापेक्ष है इस कारण एकांगी दृष्टि कर्मानुसार यदि संपत्ति प्राप्त करते हैं तो उनकी का त्याग कर सभी के साथ शान्तिपूर्वक सह- सम्पत्ति लोक हितार्थ स्वेच्छा से व्यय होती रहे अस्तित्व बनाये रखना ही उचित है।
यही सच्चा समाजवाद है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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