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क्यों ? घास की नोंक पर ठहरे हुए प्रोस कण की पिता व भाई आदि कोई भी जीवन का भाग देकर भांति जीवन भी आयुष्य की नोक पर टिका हुया उन्हें नहीं बचा सकते । इस प्रकार अनाथी मुनि है। आयुष्य की पत्तियां हिलेगी और जीवन की की भांति मोक्षाभिमुख साधक को चिन्तन करना प्रोस सूख जायेगी इसलिये व्यक्ति को क्षण भर भी चाहिये कि इस संसार में कोई भी वस्तु शरण रूप प्रमाद नहीं करना चाहिये । हितोपदेश में भी नहीं है। केवल एक धर्म अवश्य शरण रूप है जो कहा गया है---
मरने पर भी जीव के साथ रहता है और सांसारिक अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यसंचयः ।
रोग, जरा, मृत्यु आदि दुखों से प्राणों की रक्षा
करता है। ऐश्वर्यः प्रियसंवासो, मुह्यत तत्र न पंडितः ।।।
अर्थात् यौवन, रूप, जीवन, धनसंग्रह, ऐश्वर्य (3) संसार भावना और प्रियजनों का सहवास ये सब अनित्य हैं अतः जन्म-मरण के चक्र को संसार कहते हैं । प्रत्येक ज्ञानी पुरुषों को इनमें मोहित नहीं होना चाहिये। प्राणी जो जन्म लेता है वह मरता भी है । संसार ऐसा विचारना ही अनित्य भावना है।
में चार गति, 24 दंडक और चौरासी लाख जीव
योनियों में वह भ्रमण करता रहता है। विशेषाभरत चक्रवर्ती के पास वैभव व समृद्धि की
वश्यक में संसार की परिभाषा यही की है-एक क्या कमी थी। एक दिन वे अंगुली में अंगूठी
भव से दूसरे में, एक गति से दूसरी गति में पहनना भूल गये। जब उनकी नजर अंगुली पर • गई तो उसकी शोभा उन्हें फीकी लगी। उन्होंने
भ्रमरण करते रहना संसार है । एक-एक करके शरीर के सारे आभूषण उतार संसार भावना का लक्ष्य यही है कि मनुष्य दिये तब उन्हें यह समझते देर न लगी कि शरीर संसार की इन विचित्रताओं, सुख-दुःख की इन बाह्य वस्त्राभूषणों से ही सुन्दर लगता है, बिना स्थितियों का चित्र अपनी आखों के सामने लाये । वस्त्राभूषणों के स्वयं शोभाहीन है । वे सोचने नरक निगोद और तिर्यंच गति में भोगे हुए कष्टों लगे आज मेरा भ्रम टूट गया, अज्ञान और मोह का अन्तर की आंखों से अवलोकन करे और मन का पर्दा हट गया। जिस शरीर को मैं सब कुछ को प्रतिबुद्ध करे कि इस संसार भ्रमण से मुक्त समझ रहा था उसकी सुन्दरता-स्वस्थता पराश्रित कैसे होऊ । संसार भावना की उपलब्धि यही है हैं। इसी अनित्य भावना के चिन्तन में भरत कि संसार के सुख-दुःखों के स्मरण से मन उन चक्रवर्ती इतने गहरे उतरे कि शीशमहल में बैठे- भोगों से विरक्त बने । बैठे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
(4) एकत्व भावना (2) अशरण भावना
__एकत्व भावना में केन्द्रस्थ विचार यह है कि इस भावना के अन्तर्गत सांसारिक प्राणी को प्राणी आत्मा की दृष्टि में अकेला आया है और यह चिन्तन करना चाहिए कि संसार की प्रत्येक अकेला ही जायेगा। वह अपने कृत्यों का स्वतंत्र वस्तु जो परिवर्तनशील, नाशवान् है वह आत्मा कर्ता, हर्ता और भोक्ता है। इसलिये व्यक्ति को की शरणागत नहीं हो सकती। जिस प्रकार सिंह अकेले को ही अपना स्थायी हित करना है। धर्म हरिण को पकड़ कर ले जाता है उसी प्रकार का आश्रय लेना है । उसे निज स्वभाव में मग्न मृत्यु भी मनुष्य को ले जाती है । उस समय माता, होकर "एकोऽहम्" मैं अकेला हूं, "नत्थि मम
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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