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1659 सन् (1602) में लिखी गई थी। यह कवि ने सरस काव्य के परिधान में प्रस्तुत किया है, सूरचन्द्र की प्रथम महत्वपूर्ण कृति प्रतीत होती है। किन्तु उसे अधिक आकर्षक बनाने के आवेश में वहां यदि यह अनुमान सत्य है तो उनके जन्म तथा काव्य में सन्तुलन नहीं रख सका। ऋतु वर्णन दीक्षा का समय सोलहवीं शताब्दी ई० का अन्तिम वाले पांच सर्गों का काव्य में यत्किञ्चित् कथानक चरण माना जा सकता है । जनतत्वसार का रचना से कोई विशेष सम्बन्ध है, यह नहीं कहा जा काल सम्वत् 1679 (सन् 1622) सुनिश्चित है। सकता। उन्हें बिना कठिनाई के आवश्यकतानुसार स्थूलभद्रगुणमाला कवि की सबसे प्रसिद्ध तथा प्रौढ़ किसी भी काव्य में खपाया जा सकता है । अन्तिम कृति है । इसकी रचना प्राचार्य जिनराजसूरि के दो अधिकारों में भी वर्णनों की ही प्रबलता है । विजय राज्य में अर्थात् सम्वत् 1675 तथा 1680 काव्य में वर्णित सभी उपकरणों सहित इसे 6-7 (सन् 1618--23) के मध्य सम्पन्न हुई थी। सर्गों में सफलतापूर्वक समाप्त किया जा सकता घाणेराव भण्डार में विद्यमान स्थूलभद्रगुणमाला था। किन्तु सूरचन्द्र की संतुलनहीनता तथा वर्णनाकी एक पूर्ण प्रति की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि त्मक अभिरुचि ने इसे 17 सर्गों का वृहद् आकार कवि ने इस काव्य की पूर्ति जयपुर नरेश जयसिंह । दे दिया है। किसी विषय से सम्बन्धित अपनी के शासन काल में, सम्बत् 1680 (1623) कल्पना का कोश जब तक वह रीता नहीं कर देता, ई०, पौष तृतीया को, जयपुर के उपनगर सांगानेर वह आगे बड़ने का नाम नहीं लेता। यह सत्य है (संग्रामपुर) में की थी।
कि इन वर्णनों में कवि प्रतिभा का भव्य उन्मेष
हा है, किन्तु उनके अतिशय विस्तार ने प्रबन्धत्व पूर्णाष्टरसचन्द्राब्वे पौषतृतीयिकादिने ।
को नष्ट कर दिया है। खेद है, सूरचन्द्र समवर्ती पुष्पार्केपूर्ययं ग्रन्थो मया देवगुरुस्मृतेः ।। २६५ काव्यधारा के घातक आघात से न बच सके । संग्रामनगरे तस्मिन् जैन प्रासादसुन्दरे।
प्रकृति चित्रण काशीवत्काशते यत्र गंगेव निर्मला नवी ॥ २९६
सूरचन्द्र ने अपने प्रकृति चित्रण-कौशल का राज्ये श्री जयसिंहस्य मानसिंहसन्ततेः ।
काव्य में यथेष्ट परिचय दिया है। स्थूलभद्रगुणमहाराजाधिराजारख्याश्रितः साहिशासनात् ।।२६८ माला के प्रकृति चित्रण को ऋतुवर्णन कहना कथानक
अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि----समाप्ति वेश्या के स्थूलभद्रगुणमाला के वर्तमान कलेवर में दूसरे प्रति बोध तथा स्थूलभद्र के गुणगान व स्वर्गारोहण से पन्द्रहवें तक चौदह सर्ग (अधिकार) अविकल से होती है। विद्यमान हैं। तथा प्रथम एवं सोलहवें सर्ग का
..........."श्री स्थूलभद्रस्य गुणमालानामनि कुछ भाग उपलब्ध है।
चरिते वेश्याप्रतिबोधन श्राविकीकरण श्री गुरुपाद
मूलसमागत श्री स्थूलातिप्रशंसना""स्थूलभद्रस्वर्गकथानक के नाम पर स्थूलभद्रगुणमाला में वर्णन मन""गुणमाला समर्थन वर्णनो नामः सप्तदशोऽधि का जाल बिछा हुआ है । दो तीन सर्गों में सौंदर्य कारः सम्पूर्णः ॥" यह प्रशस्ति हमें समीक्षा लिखने चित्रण करना तथा स्वतन्त्र सर्गों का ऋतु वर्णन के बाद श्री अगरचन्द नाहटा के सौजन्य से प्राप्त पर व्यय कर देना कवि की कथा-विमुखता का उग्र हुई थी। प्रमाण है। भोग की अति की परिणिति अनिवार्यतः इसमें ऋतु वर्णन का प्राधान्य है। काव्य के भोग के त्याग में होती है, अपने इस सन्देश को वर्तमान रूप में प्रकृति के किसी अन्य तत्व का
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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