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संत तारणतरण की क्रान्तिकारी अभीप्सा
१५००वीं शताब्दी ने जन्म दिया एक ऐसी महान आत्मा को जिसने महावीर को पुनः धरा पर अवतरित कर दिया । चैतन्यमयतत्व को पुनः प्रतिभाषित करने हेतु संत तारणतरण का प्रादुर्भाव हुआ महावीर के परम अनुयायी के रूप में, दीर्घकाल से लुप्त अनन्त जीवन के स्रोत को पुनः प्रकट कर धरा को अनन्त आनन्द में ले जाने की अभीप्सा को लेकर । यह समय था, जब यथार्थ धर्म की स्थापना के लिये कर्म-काण्ड का विधिवत् विधान अपने मूल उद्देश्य से हट रहा था, भक्ति से विज्ञान तिरोहित हो चुका था, वह यथार्थ की उपलब्धि में साधक नहीं बन पा रहा था । धर्म की तरलता के ऊपरी तल पर मिथ्यात्व एवं रूढ़ियों की जो तैलवत् सतह उभर आयी थी एवं उस पर जो प्रवांछनीय, विजातीय पदार्थ चिपकने लगे थे तथा आत्मानन्द की शुद्ध चेतनाभूति मलिन पड़ गई थी, उस सतह को तोड़ना एवं दिव्यज्योति को पुनः प्रकट कर मानवीययोगी बना देना आवश्यक हो गया था । संत तारणतरण प्राये, उन्होंने ग्राडम्बरों का खण्डन प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने कहा कि यह पाखण्ड है कि मानव समुदाय पीड़ित रहे, हिन्दू और मुसलमान, आदमी - प्रादमी की भेद प्राचीरों को निर्मित कर एक दूसरे के लहू के प्यासे हो जायें, यह ज्ञान है । धर्म, विभाजन- भित्तियाँ निर्मित करने का कारण बने, राग-द्वेष और घृणा को हवा दे, यह असह्य है । उन्होंने कहा वह धर्म हो ही नहीं सकता जो परिवर्तित किया जा सके । मुसलमान धर्म परिवर्तन करें, मूर्तियों को तोड़े, एक विप्लव और भय का निर्माण हो, अमानवीय है, असंगत है । धर्म श्रात्मा की वस्तु का स्वभाव है अतः आत्मा पर अंकित मूर्ति को तोड़ सकना
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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श्री राजधर जैन 'मानसहंस' दमोह |
किसी भी शक्ति के सामर्थ्य के बाहर की बात है । धर्म निर्भयता है । अज्ञानता भय का कारण बन जाये, द्वेष और वैमनस्यता का कारण बन जाये तो प्रातंकित होने के स्थान पर उचित है कि उसका कारण खोजा जाये, निराकरण अनिवार्य है । यही है जैन दर्शन की महावीर की निश्चयनय की दृष्टि जिसकी उपादेयता संत तारण तरण ने पुनः प्रतिपादित की।
यह अत्यन्त गलत है कि संत तारण तरण मूर्ति के विरोधी थे । संत तारणतररण इतने कायर नहीं थे कि मुसलमानों के मूर्तिभंजन अभियान से भयभीत होकर मूर्तिपूजा का विरोध कर देते, ग्रात्मसमर्पण कर देते | यह अत्यन्त घिनौना लांछन होगा उन पर । जिसने जैन दर्शन के समस्त मौलिक सिद्धांतों को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया हो, वह मूर्तिपूजा का विरोध करता दिखाई दे, यह केवल न समझने, न जानने की अज्ञानता है । ११वीं शताब्दी के भारत प्रवासी मुस्लिम यात्री अलबेरूनी ने लिखा है, 'भारत का बौद्ध धर्म का प्रखर तेज अस्तंगत हो चुका है, सुसंस्कृत और विकसित जैन धर्म मध्य, उत्तर और दक्षिरण से अप्रभावी होकर गुजरात और राजपूताने की ओर सिमटता जा रहा है, देवी-देवताओं की हिन्दू धर्म में बाढ़ आ चुकी है, मूर्तियों के संग्रहालय देश भर में स्थापित हो चुके है ।' अलबेरूनी का इशारा था मूर्तिवाद ने भारतीय जनता की बची खुची एकता पर कठोर प्रहार आरम्भ कर दिया है और यह देश शीघ्र ही गहरी पराधीनता में जाने वाला है । यह यथार्थ था जो पन्द्रहवीं शताब्दी तक पूर्णरूपेण उभर कर भयानक परिणामगामी बन चुका था ।
कि इस अनेक
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