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आत्मधर्मी जैनाचार्य जवाहर की राष्ट्रधर्मी भूमिका
. ० इंदरराज बैद
आकाशवाणी, जयपुर
मानव जाति को प्रात्मोद्धार के पथ पर ले पूर्ण दुर्घटना थी, जिसने जवाहर के मानस का इस चलने वाले सन्तों की सुदीर्घ परम्परा में कुछ महा- सीमा तक मंथन किया कि उसमें आगे चलकर पुरुष ऐसे भी हुए हैं, जिन्होंने आत्मोद्धार के साथ- समस्त मातृरूपिणी स्त्री जाति के प्रति निष्छल साथ राष्ट्रोद्धार का पथ भी प्रशस्त किया है भक्ति की लहरें उच्छलित होती रहीं । पाँच बर्ष और मातृभूमि के प्रति लोगों को उनके कर्तव्यों की अवस्था में पहुँचते-पहुंचते उनके मामा और दायित्वों का भान कराके उन्हें बलिदान की श्री मूलच द धोका ने आश्रय दिया। फिर अध्ययन वीर भावना से प्रेरित भी किया है। ऐसे दोहरे का क्रम प्रारंभ हुआ, व्यापार का सिलसिला भी व्यक्तित्व को धारण करने वाले विलक्षण साधु चला । और फिर आत्मीय जनों की मृत्यु का दौर पुरुषों में दो नाम स्वतः ही उभरकर आते हैं और कुछ इस तरह चला कि जवाहर के मन में जीवन वे हैं -स्वामी विवेकानंद और प्राचार्य जवाहर- और मृत्यु का रहस्य बिजली की तरह कौंधना शुरू लाल । सनातन धर्म और श्रमण धर्म के प्रचारक हो गया । जीवन की क्षणभंगुरता के प्रत्यक्षदर्शी के रूप में तो इन दोनों संत पुरुषों ने अपनी कीर्ति जवाहर के मन में एक शुभ संकल्प ने जन्म लिया अजित की ही, राष्ट्रीयता का भावोद्बोधन करके और अन्ततः उन्होंने विक्रम संवत् 1947 की मार्गएक व्यापक राष्ट्रधर्म की आधारशिला भी रखी। शीर्ष शुक्ला द्वितीया को पन्द्रह वर्ष की अल्प आयु में सचमुच भारत की धर्मप्राण और राष्ट्रप्रेमी जनता पूज्य हुकमचन्दजी महाराज की शिष्य परम्परा में के हृदय में इन दोनों साधु पुरुषों के व्यक्ति- दीक्षित होकर एक नये तेजस्वी जीवन का शुभारम्भ त्व का तेज सदैव जगमगाता रहेगा।
किया । अट्ठाइस वर्षों के मुनि जीवन के बाद
जवाहर आचार्य घोषित किये गये । उनके बाद के प्राचार्य जवाहरलालजी का जन्म विक्रम संवत् ।
ए दो दशक उनके साधु जीवन की प्रखरता के दशक 1932 की कार्तिक शुक्ला चतुर्थी को मालव प्रदेश
थे। सन् 1943 की 10 जुलाई को उन्होंने के थांदला नामक हरे-भरे रमणीय क्षेत्र में हुअाता
तिविहार संथारापूर्वक अपने भौतिक प्राण त्याग था । जन्म स्थली की यह समृद्धि और रमणीयता दिये । इस प्रकार वे लगभग 50 वर्षों तक भारत ही आगे चलकर उनके जीवन की आध्यात्मिक की अध्यात्मनिष्ठ जनता की चेतना को जगाते समृद्धि और सात्विक रमणीयता के रूप में ।
रहे । प्रकट हुई थी। पोसवाल वंशोत्पन्न कवाड़ गोत्रीय " श्री जवाहर की माता का नाम श्री नाथी बाई और प्राचार्य जवाहरलालजी विरले सन्त थे, पिता का नाम श्री जीवराज था । हैजाग्रस्त होकर जिन्होंने घर-बार धन दौलत रिश्ते-नाते सब कुछ माँ ने अपने पुत्र का साथ जल्दी ही छोड़ दिया। तोड़कर भी जननी जन्मभूमि की महिमामयी मिट्टी जवाहर उस समय केवल दो वर्ष के बालक थे। से कभी नाता नहीं तोड़ा । 'जननी जन्मभूमिश्चय माँ का यह विद्रोह उनके जीवन की अत्यन्त करुणा- स्वर्गादपि गरीयसी' की उदात्त भावना को अपने
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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