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समाज में छोटी अवस्था में होने वाले गठ-बंधन पर भी चिंता और दुःख व्यक्त किया । उन्होंने इस का भी उन्होंने विरोध किया क्योंकि ऐसे बाल- सम्बन्ध में कहा कि "जगत् का कोई भी धर्म, विवाह शक्तिहीनता को जन्म देते थे। उन्होंने संप्रदाय या मत, जो किसी ऊँचे उद्देश्य से कायम समाज के सभी लोगों से यह अपील की कि वे "इस हा है, मदिरापान का विधान या समर्थन नहीं घातक प्रथा को त्याग दें । इसका मूलोच्छेदन करके कर सकता।" मदिरा पीने वालों को उन्होंने संतान का और संतान के द्वारा समाज एवं राष्ट्र परिवार, जाति. समाज और देश का शत्रु घोषित का मंगल-साधन करें।" उन्होंने विधवाओं पर किया । होने वाले अत्याचार के विरुद्ध भी आवाज उठायी। विधवा बहिनों के दुख-दर्द की ओर समाज के इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य जवाहरप्रगतिशील लोगों का ध्यान आकृष्ट किया । स्त्री- लाल एक विशुद्ध राष्ट्रवादी जैन संत थे, जिन्होंने शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए भी उन्होंने समाज आत्मधर्म के साथ राष्ट्रधर्म को भी अंगीकार किया। का उद्बोधन किया। उनकी दृष्टि में नर और नारी उन्होंने दोनों को एक दूसरे का माना, इतना ही दोनों समान अधिकारों के पात्र थे । यद्यपि उनकी नहीं उन्होने तो राष्ट्रधर्म को बृहत् प्रात्मधर्म की दृष्टि में दोनों के कार्य क्षेत्र स्पष्टतः भिन्न थे । वे अाधारभूमि के रूप में स्वीकार किया । उन्होंने स्त्रियों के लिए ऐसी शिक्षा के हिमायती थे, जो कहा कि जैसे पात्र के अभाव में घी नहीं टिक उनमें आत्मविश्वास और आत्मगौरव जगा सकता, उसी प्रकार राष्ट्रधर्म के बिना सूत्र चारित्रा सके।
धर्म भी नहीं टिक सकता। वस्तुतः वे ऐसे राष्ट्रजैनाचार्य जवाहर ने दो राष्ट्रघाती प्रवृत्तियों निष्ठ धर्मप्राण संत पुरुष थे जिन्होंने राष्ट्र को का भी विरोध किया, एक गौ-हत्या का और दूसरा जगत् का प्रतीक माना और आत्मा के उद्धार के मद्यपान का । 'गो' को वे राष्ट्रीय निधि मानते थे। साथ राष्ट्र अर्थात् जगत् के उद्धार का भी पथ गौवध उनकी दृष्टि में भारतीयों के लिए कलंक प्रशस्त किया। आज के राष्ट्रीय भावोन्माद के था। उन्होंने एक अहिंसक मानवतावादी जैन साधु विशुद्ध और स्वस्थ वातावरण में उनकी दोहरी तपके नाते ही नहीं, एक हितैषी के रूप में भी यह स्या ने जो सौरभ बिखेरा है, वह चिरकाल तक इस कामना की । गौधन के संरक्षण और संवर्धन के साथ उद्यान को सुवासित बनाये रक्खेगा, इसी पवित्र ही भारत की समृद्धि भी जुड़ी हुई है । गौ-हत्या प्रतीतिपूर्ण भावना के साथ लेखनी अपनी श्रद्धा की तरह उन्होंने भारतीय जनता में व्याप्त मद्यपान अर्पित करती हुई कृतार्थ हुआ चाहती है।.
सुक्तक
श्री प्रानन्द जैन सागर जो दिल के धीरज को, जीते उसे वीर कहते हैं। जो शरीर के अंगों से, जीते उसे गंभीर कहते हैं। मगर अहिंसा और हिंसा में, काफी अन्तर है "प्रानन्द" जो अपने प्रापको जीते, उसे "महावीर" कहते हैं ।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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