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इससे यह भी पता चलता है कि वे अपनी ज्ञान गरिमा के कारण कलिकाल सर्वज्ञ कहलाते थे ।
इससे सुनिश्चित रूप से जाना जाता है कि वे विदेह क्षेत्र में गये थे और वहां पर भगवान् सीमंधर स्वामी की दिव्यध्वनि से तत्त्व स्वरूप निर्णय करके आये थे । यही कारण है कि उनके अध्यात्म का अनुगमन उनके परवर्ती अनेक प्राचार्यों ने किया है ।
एक प्रश्न यह उठता है कि उन्होंने अपने ग्रंथों में यह कहीं भी उल्लेख नहीं किया जिससे यह निःसंदेह प्रमाणित हो जाता कि वे विदेह क्षेत्र गये थे । इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि उन्हें अपने गुरुओं की और अन्य आचार्यों की प्रामाणिकता और अपनी प्रामाणिकता का आधार एकमात्र स्वानुभव को ही प्रदर्शित करना था । यदि कुन्दकुन्दाचार्य की प्रामाणिकता इसलिये मानी जावे कि वे विदेहक्षेत्र में सीमंधर स्वामी से उपदेश सुनकर प्राये हैं, तो फिर जो प्राचार्य सुनकर नहीं ये है वे सब अप्रामाणिक हो जाते । दूसरी बात यह है कि उन्होंने कहीं भी अपना परिचय नहीं दिया है, जिसमें इस विषय का वे उल्लेख करते। उन्होंने कहीं भी अपने पांच नामों का भी उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने अपने गुरु का भी कहीं नामोल्लेख नहीं किया। जिससे पता चलता है कि उनको इन लौकिक चर्चाओं के लिये अवकाश नहीं था और न उस ओर उनकी रुचि ही थी । उन्हें तो तत्व का परिचय स्वयं करना था और दूसरों को कराना था ।
यह भी पता चलता है कि उस युग में 'कलिकाल सर्वज्ञ' जैसे सर्वोत्कृष्ट प्रतिष्ठा से वे प्रतिष्ठित थे । तब प्रकाशमान सूर्य को क्या कहने की प्रावश्यकता है कि इतना प्रतिष्ठाशाली हूं कि सारी दुनिया को प्रकाशित कर रहा हूं। कहावत भी है - हीरा मुख से न कहे बड़ो हमारो मोल ।'
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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उनके
गुरु
कौन थे ?
पंचास्तिकाय की टीका में जयसेनाचार्य ने अपने गुरु का नाम कुमारनंदि बताया है ।
कुन्द
1
श्री कुमारनंदिसिद्धान्तदेव शिष्यैः श्री कुन्दाचार्य देवैः विरचिते पञ्चास्तिकाय किन्तु नंदिसंघ बलात्कारगण की पट्टावलि में आपके गुरु का नाम जिनचंद बताया है । जैसे—
पदे तदीये मुनिमान्यवृत्ती जिनादिचन्द्रः समभूदतन्दुः ततोऽभवत् पञ्चसुनामधामा श्री पद्मनंदि मुनि चक्रवर्ती ||
समय
2
षट्प्राभृत में भी ग्रापके गुरु का नाम जिनचन्द बतलाया है । इस मतभेद का निवारण इस प्रकार हो सकता है कि दीक्षागुरु आपके जिनचन्द हों और शिक्षागुरु श्री कुमारनंदि हों ।
नंदिसंघ की पट्टावली के अनुसार एवं अन्य प्रमाण स्रोतों से आपका समय शालिवाहन अर्थात् शक संवत् 49-101 या ईस्वी सन् 120-179 है । आपके समय के विषय में विद्वानों में कुछ मतभेद है । श्री के० बी० पाठक के अतिरिक्त अन्य सब विद्वान् नंदिसंघ की पट्टावली के अनुसार इनका समय शालिवाहन विक्रम या शक संवत् 49-101 या ई० सं० 127-179 निश्चित करते । इस समय पर सभी विद्वान् एकमत हैं ।
1. ऐसा कहा जाता है कि आपने षट्खण्डागम के तीन खण्डों पर 'परिकर्म' नाम की टीका लिखी थी, इस बात को स्वीकार करके भी उक्त समय में कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि षट्खण्डागम के रचयिता पुष्पदंत और भूतवली का समय वीर निर्वारण सं० 593-683, ई० सं० 66-156 सिद्ध किया गया है । इस प्रकार यदि पूरा षट्खण्डागम नहीं तो इसका पूर्वभाग इनको अवश्य
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